कुलभूषण उपमन्यु
हमारे देश में कृषि क्षेत्र के सामने कई चुनौतियां हैं। एक ओर किसान के लिए कृषि को लाभदायक बनाने की चुनौती है, तो दूसरी ओर मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बचाने बढ़ाने की जरूरत है। मानव स्वास्थ्य का प्रश्न भी बहुत हद तक कृषि उत्पादों के जहर मुक्त होने पर निर्भर है। 140 करोड़ लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी तो है ही। इन सारी चुनौतियों को कुछ-कुछ निपटाने की क्षमता हो, ऐसी कृषि पद्धति की तलाश लंबे समय से रही है। हरित क्रांति के पहले, अन्न के संकट से देश दो-चार था। हरित क्रांति आई तो अपने साथ रासायनिक खाद और फसल की बीमारियों से लड़ने वाले जहर लेकर आई।
इन रासायनिक छिड़कावों के बाद जहरीले तत्वों का कुछ प्रतिशत अनाज, फल और सब्जी में बचा रह जाता है। रासायनिक खाद मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को धीरे-धीरे घटाते जाते हैं और रासायनिक खाद की मात्रा की मांग बढ़ती जाती है। इससे कृषि की लागत बढ़ जाती है। हालांकि बाजार की व्यवस्थाएं भी इससे मिलकर खेती को लगातार कम लाभदायक बनाने में अपनी भूमिका निभाती हैं। किंतु मिट्टी की घटती उत्पादकता का क्या करें। इससे निपटना उपरोक्त सभी चुनौतियों के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है।
खेती को टिकाऊ बनाने के लिए इसका महत्व सबसे ज्यादा है। इन सब बातों को देखते हुए देश भर में अपने-अपने स्तर पर चिंतन और प्रयोग शुरू हुए। किसान, जो रासायनिक कृषि का आदी हो गया था उसे विश्वास में लेना और यह सिद्ध करना कि गैर रासायनिक कृषि में उपज में कोई कमी नहीं आने वाली है, यह भी अपने आप में एक वाजिब चुनौती थी। इन हालात में जैविक कृषि, ऋषि खेती, जीरो बजट खेती, (जिसे बाद में प्राकृतिक खेती भी कहा जाने लगा) और लो एक्सटर्नल इनपुट सस्टेनेबल खेती आदि कई प्रयोग हुए।
असल में इन सभी प्रयोगों की साझी समझ यह थी कि खेती में जहरीली रासायनिक खादों, रासायनिक कीटनाशकों, और घास मारने वाली दवाइयों का प्रयोग न किया जाए और उपज में भी कोई कमी न आए। जैविक कृषि में गोबर की खाद व पत्तों की खाद को वैज्ञानिक तरीके से बनाने पर जोर दिया गया, जिसमें गड्ढों में खाद बनाने और केंचुआ खाद बनाने पर जोर दिया गया। गोमूत्र से भी खाद बनाने की बात हुई। जीरो बजट खेती में गोमूत्र से जीवामृत, घन जीवामृत, बनाने पर जोर दिया गया। देसी गाय के मूत्र और गोबर थोड़ा सा डालकर घोल बनाकर यह खाद बनाई जाती है।
इसके अलावा कीटनाशक भी जैविक तत्वों से बनाने का विकास किया गया। ऋषि खेती या पूर्ण प्राकृतिक खेती जापानी वैज्ञानिक डॉ. फुकुओका की वन स्ट्रा रेवोलुशन पर आधारित विधि है, जिसमें जमीन को प्राकृतिक रूप से ही उपजाऊ बनाने की कला विकसित की गई, जिसमें रासायनिक तत्वों की बात तो दूर, जैविक खाद या गोमूत्र आदि कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही जमीन की जुताई की जाती। यह विधि तो ज्यादा प्रचलित नहीं हो पाई, परन्तु जैविक और जीरो बजट खेती का प्रचार हुआ और उसके प्रयोगों के अच्छे परिणाम भी सामने आए। श्री विधि से धान और अन्य फसलों में भी भरपूर फसल प्राप्त करने के सफल प्रयोग हुए। देहरादून की संस्था पीपल सांइस इंस्टीट्यूट ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिमाचल प्रदेश में भी उनके ही सहयोग से आरटीडीसी संस्था ने सफल प्रयोग किए, जिसके परिणाम पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के साथ भी साझा उनकी देखरेख में किए गए। इसी तरह जीरो बजट खेती के प्रयोग भी अपनी सफलता सिद्ध करने में सफल हुए। आत्मा परियोजना के अंतर्गत इस दिशा में अच्छा काम हुआ, जिसे एक सफल शुरुआत कहा जा सकता है।
ये जो भी दो-तीन तरह की गैर रासायनिक कृषि पद्धतियां हैं, इनके आपसी टकराव बेमानी हैं। इनमें थोड़ा-थोड़ा अंतर जरूर है, किंतु असल लक्ष्य भी एक है और आपस में बहुत समानताएं भी हैं। इनके एकांगी प्रयोग से अच्छा हो कि इन पद्धतियों के मिले-जुले रूप को सुविधा के अनुसार प्रयोग कर लिया जाए और इसे एक ही बड़ी योजना का हिस्सा माना जाए। इसे हम जहरमुक्त टिकाऊ खेती कह सकते हैं। अब चिंता है इसके व्यापक फैलाव की। सब किसान इससे लाभान्वित हों। फसल की लागत कम हो तो किसान का लाभांश भी बढ़े। जहरमुक्त अन्न, फल, सब्जी मिले तो जन-स्वास्थ्य भी सुधरे। दवाई की जरूरत कम हो तो आमजन आर्थिक दबाव मुक्त हो।
रासायनिक खेती का एक और बड़ा नुकसान यह भी है कि जमीन की कार्बन प्रदूषण शक्ति कम होती जाती है, कार्बन उत्सर्जन बढ़ जाता है। जहरमुक्त खेती से जमीन की कार्बन प्रदूषण की शक्ति लगातार बढ़ती जाती है, जिससे खेती की जमीन कार्बन सिंक का काम भी करने लगती है। यह जलवायु परिवर्तन के इस दौर में एक बड़ी उपलब्धी होगी। हिमालयी प्रदेशों को इसमें विशेष रुचि लेने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के चलते और गलत विकास तकनीकों के कारण हम ही प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो रहे हैं। जहरमुक्त कृषि जलवायु नियंत्रण में सकारात्मक योगदान देने वाली साबित होगी।
इसके साथ ही जुड़ी हुई दूसरी बात है फसल चयन। जिस तरह से कुछ पुराने अन्न कोदरा, कंगनी, सांवां, बाजरा आदि की गुणवत्ता और पौष्टिकता को पहचाना गया है, यह सराहनीय है और इसे जहरमुक्त खेती का जरूरी हिस्सा होना चाहिए। क्योंकि ये अन्न कई बीमारियों के इलाज में लाभदायक हैं। इनमें गेहूं और चावल के मुकाबले बहुत अधिक पौष्टिक तत्व हैं। सरकार कुछ प्रयास कर भी रही है, किंतु बहुत कुछ करना बाकी है। प्रायोगिक तौर तो जहरमुक्त खेती पर कार्य हो रहा है। कुछ सरकार कर रही हैं। कुछ संस्थाएं भी कर रही हैं। किंतु इसे मुख्यधारा में लाना अभी बाकी है, जिसके बिना असली लाभ दृष्टिगोचर नहीं हो सकता।
जहरमुक्त खेती को मुख्यधारा में लाने का कार्य सरकार के सीधे खुले सहयोग के बिना नहीं हो सकता। कृषि विश्वविद्यालय का प्रसार कार्य और कृषि विभाग के प्रसार प्रभाग को इस दिशा में सक्रिय किये जाने की जरूरत है। हमें पूरी आशा है कि राज्य को पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित करने के संकल्प वाली सरकार जो प्रदूषण मुक्त विद्युत चालित वाहनों को प्रोत्साहन जैसे स्वागत योग्य कदम उठा रही है, वह जहरमुक्त कृषि पर भी विशेष ध्यान देगी। वैसे भी इससे सरकार पर रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर होने वाले खर्चों का बोझ भी कम ही होगा।
लेखक, पर्यावरणविद् और जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के जानकार हैं।
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