राजेंद्र तिवारी
बात बहुत गहराई की है, समझने की है कि देश में क्या-क्या षड्यंत्र चल रहे हैं। विषय है ‘जातिगत जनगणना’ का। कुछ लोग जातिगत जनगणना की मांग का राग अलाप रहे हैं। यह समझना होगा कि वृहद हिंदू समाज के विरुद्ध वामपंथियों का यह सुनियोजित षड्यंत्र है और ताज्जुब तो यह है कि इस झांसे में कांग्रेस व अन्य राजनीति दल सत्ता की लालसा में अंधे हो चुके हैं। देखिए, बात को ऐसे समझते हैं, जब किसी बड़े परिवार में विघटन कराने की योजना कुछ ईर्ष्यालु बनाते हैं तो परिवार के सदस्यों में फूट डालने के लिए छोटे, बड़े, ऊंचे, नीचे आदि के भेदभाव की बातें करने लगते हैं। उनमें ईर्ष्या और एक-दूसरे में भेदभाव का बीजारोपण करते हैं। उनमें आपस में लड़ाई कराने की कोशिश करते हैं, और यदि परिवार के सदस्य आपस में लड़ने झगड़ने लगें, तो विघटनकारी बड़े ही खुश होते हैं, फिर तमाशा देखते हैं, उस बड़े परिवार की खिल्ली उड़ाते हैं। बस यही षड्यंत्र वृहद हिंदू समाज के खिलाफ चल रहा है। ये चाहते हैं कि हिन्दुओं में विघटन, भेदभाव हो और आपस में लड़ें-झगड़ें।
क्या कभी यह सोचा है कि जातिगत जनगणना से हिन्दू समाज की सैकड़ों जातियों में संख्यात्मक भेदभाव और संख्या के आधार पर उनमें शक्तिशाली व कमजोर होने का भाव प्रकट होगा। अभी हम सब एक हैं, परंतु फिर सभी संख्या के आधार पर विघटित हो जाएंगे। अभी संकट आने पर सब साथ होते हैं, लेकिन तब सिर्फ जातिगत पुकार की जाएगी। जो संख्या में अल्प होंगे, उन्हें कमजोर माना जाने लगेगा और चुनावी राजनीति के चलते उन्हें अनदेखा किया जाएगा। देश में बहुत बड़ी साजिश राजनीतिक स्तर पर चल रही है। ओबीसी बनाम अन्य के बीच विघटन कराने का षड्यंत्र। इसके पीछे राजनीति और चुनाव है। इसकी शुरुआत हुई थी अनुसूचित जाति बनाम अन्य जातियों के बीच विघटन कराने से। समय बदला और फिर हम तीन में बंट गए। अनुसूचित जाति, ओबीसी और सामान्य जाति। इस पर भी जातिगत भेदभाव के चलते सभी मेलजोल के बने रहे। तो भी सियासती चालबाजों का दिल नहीं भरा, तो जातिगत जनगणना कराने की मांग करने लगे। ब्राह्मण, बनिया व क्षत्रिय के अलावा भी तो सामान्य वर्ग में दर्जनों जातियां हैं, जो अनुसूचित जाति व ओबीसी के दायरे में नहीं हैं। यह समझ से परे है कि संख्या के आधार पर बांटने से आखिर फायदा क्या होगा ? आवश्यकता तो जातिगत भेदभाव मिटाने की है, जबकि इसके विपरीत जातिगत कट्टरता की इमारत खड़ी की जा रही है।
जातिगत जनगणना 1931 में अंग्रेजों द्वारा इस उद्देश्य से कराई गई थी कि भारत के हिन्दू समाज को संख्या के आधार पर जातिगत चिह्नित करते हुए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलना है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात जब से प्रजातंत्र के आईने में चुनाव होना प्रारंभ हुए, तभी से लगातार प्रत्येक चुनाव में जातियों को चिह्नित किया जाता रहा है। शनैः शनैः स्थिति ऐसी बन गई कि उनमें ईर्ष्या और वैमनस्यता के साथ भेदभाव आभासित कराया गया। जातिगत संख्या के आधार पर प्रत्याशियों को चुनाव में उतारने की परिपाटी बनी। और अब तो स्थिति यह है कि बड़ी बेशर्मी से समस्त चुनाव जातिगत बन गए हैं। विघटन की इस योजना और षड्यंत्र में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है। सभी को सत्ता की मलाई चाहिए।
देश के राजनीतिक दलों ने वोट-बैंक की खातिर जनता को जातिगत आधार पर विभाजित करने का काम किया है। स्वतंत्रता के सात दशक व्यतीत होने के बाद भी जाति-भेद में बढ़ोतरी हुई है, द्वेष एवं ईर्ष्या के साथ-साथ जातिगत वैमनस्यता का विकराल स्वरूप प्रकट होने लगा है। जब ये सत्ता लोलुप पदपिपासियों को जातिगत जहर के आधार पर फूट डालो और राज्य करो का सूत्र सफल होता दिखा, तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग के आधार पर अगड़ा और पिछड़ा की राजनीति का बीज डाला।
विषय बहुत गंभीर है और इस पर यदि ध्यान नहीं दिया गया, तो देश में जातिगत आधार पर झगड़े-फसाद होने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता, बल्कि सच तो यह है कि अनेक जगह जातिगत झगड़े होने लगे हैं। जातिगत आधार पर क्षेत्र, गांव, मोहल्लों का विभाजन होने लगा है। उस पर भी जातिगत जनगणना करा कर गृह युद्ध जैसी स्थिति निर्मित हो सकती है। इसकी जड़ में जाने पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति का विकृत स्वरूप सत्ता सापेक्ष सोच ने जातिगत कट्टरता के साथ जनता को चिह्नित करते हुए फूट डालो और राज्य करो की नीति पर सियासती चालें चालीं जा रही हैं।
मैं इस विषय से इनकार नहीं करता कि पिछड़े वर्ग को अपग्रेड किया जाना चाहिए, लेकिन प्रश्न तो यह है कि पिछड़ा कौन है ? पिछड़ेपन की परिभाषा क्या है ? पिछड़ा होने की कसौटी क्या है ? बिडंबना तो यह है कि आर्थिक रूप से पीड़ित होना, सामाजिक स्तर पर तिरस्कृत होना, अशिक्षित होना, आदि अयोग्यताएं पिछड़ेपन की परिभाषा में समाहित नहीं हैं और ऐसी ही अयोग्यताओं से सामान्य जाति के भी जो लोग पीड़ित हैं, क्या उन्हें हम पिछड़े नहीं मानेंगे ? देश के समक्ष समाज की एक तस्वीर यह भी है कि पिछड़ी व अनुसूचित जाति के अनेकों चिह्नित व्यक्ति आर्थिक रूप से संपन्न भी हैं, पढ़े-लिखे हैं, बड़े शासकीय व अशासकीय पदों पर पदस्थ हैं, सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित भी हैं और राजनीतिक स्तर पर स्थापित हैं। फिर भी उन्हें पिछड़े व दलित कहा जाना क्या उचित है ? कहना चाहूंगा कि जब-जब जातिगत आधार पर चिह्नित करते हुए सुविधाएं दी जाती रहेंगी, तो वृहद हिंदू समाज में भेदभाव व विघटन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि जातिगत भेदभाव समाज में है और इसे मिटना चाहिए। परंतु इसे तो बढ़ाने का काम किया जा रहा है। प्रश्न तो यह है कि यह भेदभाव, समरसता और समानता के लिए हानिकारक है या नहीं ? यदि जातिगत भेदभाव हानिकारक है, तब फिर प्रश्न यह उठता है कि क्या इसे किसी राजनीतिक फायदा के लिए हवा देना चाहिए ? या जातिगत भावना का दमन करना चाहिए ? ध्यान करना होगा, जड़ में राजनीति व चुनाव है, और इसके अलावा कुछ भी नहीं है। मैं देख रहा हूं कि एक समय की एकक्षत्र शासन करने वाली कांग्रेस की नीति में परिवर्तन हो चुका है। अब राष्ट्रवादी कांग्रेस नहीं रही है, बल्कि कांग्रेस वामपंथी विचारधारा से प्रेरित हो गई है। मैं उन्हें पप्पू शब्द से संबोधित नहीं करना चाहता, और उचित भी नहीं समझता, लेकिन उनके निर्णय भी देखिए, घोषणा ही कर दी कि कांग्रेस शासित प्रदेशों में जातिगत जनगणना कराई जाएगी। कहां पहुंच गई है कांग्रेस ? भारत तेरे टुकड़े होंगे के साथ खड़ी है !
अब आप प्रश्न करेंगे कि पूर्व काल में भी जातिभेद था, तो अब क्यों नहीं ? देखिए, पूर्व काल में भेदभाव था, छुआ-छूत थी, लेकिन ईर्ष्या और वैमनस्यता नहीं थी। एक समय था और आज भी दूरदराज ग्रामीण क्षेत्रों में शादी-विवाह जन्म में ऐसी रस्में स्थापित हैं कि जिन्हें पिछड़े व अनुसूचित कहा जाता है, वे उन रस्मों के आवश्यक अंग रहे हैं। मुझे याद है कि 44 वर्ष पूर्व मेरे विवाह के समय एक रस्म के अनुसार मेरी मां ने वाल्मीकि समाज की महिला को प्रणाम कर आशीर्वाद लिया था। परिवार के कार्यक्रमों में पिछड़ी व अनुसूचित जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। वह समरसता समाप्त हो सकती है।
मैं इस बात से इनकार नहीं करता हूं कि प्राचीन समय में और यदा-कदा अभी भी कुछ बाहुबली लोग अपने रसूख और घमंड के कारण अप्रिय घटनाएं करते रहे हैं, और उनसे सख्ती से निपटने की आवश्यकता है। ठीक है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है, लेकिन सारा तालाब तो गंदा नहीं है। पुराने समय को कोसते हुए हम लकीर के फकीर तो नहीं बनना चाहेंगे। समरसता और समानता के लिए हमें नए समय को देखना होगा। सेवा, समरसता, सामंजस्यता, भाईचारा की स्थापना के लिए मेरा सुझाव है कि चुनाव के समय सामान्य-जाति बाहुल्य क्षेत्र में अनुसूचित-जाति व पिछड़ी जाति वाले को उम्मीदवार होना चाहिए। अनुसूचित-जाति व पिछड़ी जाति बाहुल्य क्षेत्र में सामान्य-जाति वाले को उम्मीदवार होना चाहिए। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में हिन्दू को उम्मीदवार होना चाहिए और हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र में मुस्लिम उम्मीदवार होना चाहिए। ऐसा होने पर कटुता समाप्त होगी और जन प्रतिनिधि अपने से भिन्न जाति की चिंता करेगा।
लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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