प्रियंका कौशल
दो दिन पहले एक समाचार आया कि पुणे में रहनेवाले एक 16 वर्ष के बच्चे ने ऑनलाइन गेमिंग के टास्क को पूरा करने के लिए 14वीं मंजिल से कूदकर जान दे दी। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा, लॉग ऑफ। केवल इतना ही नहीं, आत्महत्या के पहले बच्चे ने एक कागज पर पेंसिंल से उसके अपार्टमेंट और गैलरी से कूदनेवाला टास्क बनाया। इसी पेपर में लॉगआउट भी लिखा है। बच्चे के कमरे से गेम की कोडिंग भाषा में लिखे कई कागज भी मिले हैं। बच्चे की मां के अनुसार, वह दिनभर अपने कमरे में बंद रहकर गेम खेलता था। जिस दिन बच्चे ने ये कदम उठाया, मां दूसरे बीमार बच्चे की देखरेख कर रही थी। पिता विदेश में कार्यरत हैं और मां भी कामकाजी है। अब प्रश्न ये उठता है कि ऐसे में हमारे बच्चे कैसे सुरक्षित रहेंगे?
आपको ब्लू व्हेल गेम याद ही होगा। उसमें भी टास्क के जरिए खिलाड़ी को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाता था। वर्ष 2017 में ब्लू व्हेल गेम पर देश में प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन अब एक नया गेम सामने हैं। ताज़ा मामला ऐसे ही एक ऑनलाइन गेम का है। भारत में ब्लू व्हेल गेम ने पहला शिकार जुलाई 2017 में मुंबई के 14 साल के स्कूल छात्र मनप्रीत सिंह साहनी को बनाया था। तब मनप्रीत ने 7वीं मंजिल से कूदकर जान दे दी थी। 2019 में जारी एक रिपोर्ट की मानें तो ब्लू व्हेल गेम के चलते रूस, यूक्रेन, भारत और अमेरिका में 100 से ज्यादा बच्चों की जान गई थी।
वर्तमान में अधिकांश घरों में माता और पिता दोनों ही कामकाजी होते हैं। एकल परिवार होने से बच्चों को अकेले या दूसरों के भरोसे छोड़ दिया जाता है। ऐसे में बच्चे का मनोविकास वैसा नहीं हो पाता, जैसा होना चाहिए। कई बच्चे गलत संगत में पड़ जाते हैं। कई दुर्व्यवहार या शोषण का शिकार होते रहते हैं। एक खतरा ऑनलाइन गेम्स का भी आ गया है। देश में ज्यादातर बच्चों के पास बच्चों के पास मोबाइल फोन और टैब है। ऑनलाइन गतिविधियों के माध्यम से ब्रेनवाश कर उनका जीवन तक छीना जा रहा है। ऑनलाइन रहने के कई खतरे बच्चों पर मंडरा रहे हैं, जिससे अभिभावक पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। अब प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है कि अपने बच्चों को बचाएं कैसे?
इसका केवल एकमात्र ही समाधान है, संयुक्त परिवार। जहां बच्चे पूरी तरह सुरक्षित, स्वस्थ व चरित्रवान बन सकते हैं। संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, काका-काकी, ताऊ-ताई और परिवार के अन्य छोटे-बड़े सदस्य साथ रहते हैं। सब एक दूसरे की चिंता करते हैं, देखभाल करते हैं और आपस मे स्नेह बांटते हैं। विशेषकर बच्चे सबकी नजरों के सामने रहते हैं। उनमें परिवार के संस्कार स्वतः ही हस्तांतरित होते हैं। घर में बुजुर्गों के रहने से बच्चों की दिनचर्या अनुशासित होती है।
भारतीय संयुक्त परिवारों में बच्चों को अन्य सम्बन्धों में भी माता-पिता से भी अधिक प्रेम पाते हम सबने देखा है। बच्चे अपने दादा-दादी और परिवार के अन्य सदस्यों जैसे बुआ, काका, मामा के अत्यंत निकट होते हैं। परिवार के अन्य बच्चों के साथ वे परस्पर सहयोग करना आसानी से सीख जाते हैं। मिलकर रहना और सबका सम्मान करने का भाव उनकी प्रकृति में सहज ही समा जाता है। किशोर या युवा होने पर वे गली, मोहल्ले या शहर में कहां, किसके साथ खड़े हैं या घूम रहे हैं, इसपर अन्य परिजनों की दृष्टि भी रहती है। इससे बालक या बालिका कभी पथभ्रष्ट नहीं होते। लेकिन, आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण परिवार टूटने लगे हैं। कर्तव्यों की बात करनेवाले हम भारतीय अधिकारों की बात करने लगे। यहीं से त्याग व समर्पण की जगह स्वार्थ ने ले ली।
यह स्वार्थ हमारे बच्चों पर भारी पड़ने लगा है। उन्हें परिवार का वह समुचित सुख नहीं मिल पा रहा, जिसके वे अधिकारी हैं। वैसे भी हमारे परिवार की विरासत हमारे बच्चों तक हमारा परिवार ही हस्तांतरित कर सकता है। हम किस कुल, गौरव, परम्परा, संस्कृति के संवाहक हैं, ये कोई बाहर से आकर तो बच्चों को सीखा नहीं सकता। बच्चे संयुक्त परिवारों में यह सहज सीख जाते हैं। संयुक्त परिवार में पला बच्चा जीवन भर सामाजिक रूप से सक्रिय रहता है, संकट के समय भी कभी अलग-थलग नहीं अनुभव करता।
आजकल पर्सनालिटी डेवलपमेंट, ग्रुप डिस्कशन, कॉन्फिडेंस जैसे शब्द बहुत सुनाई देते हैं। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि उक्त गुणों के लिए बड़े-बड़े कोचिंग संस्थानों में अभिभावक बड़ी धनराशि खर्च कर रहे हैं, जबकि संयुक्त परिवारों में रहनेवालों बच्चों में यह गुण भी स्वतः रहते हैं, उसे डेवलप करने बाहर का सहारा नहीं लेना पड़ता। ऐसे में कहना होगा कि अब समय आ गया है कि हम गम्भीरता से इस बात को समझें कि हमारे बच्चों का उज्ज्वल भविष्य का रास्ता संयुक्त परिवार से होकर ही गुजरता है। संयुक्त परिवार में वह सुखी, सहज, स्वस्थ, नैतिक मूल्यों वाले व आत्मविश्वासी बनेंगे और भारत की आनेवाली पीढ़ी सक्षम, सामर्थ्यवान और मजबूत बनेगी।
लेखिका, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं।
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