हमारी वजह से बढ़ रही ग्लोबल वार्मिंग और गलतियों की वजह से उत्तराखंड के खूबसूरत जंगलों में आग लगने की घटनाएं हो रही हैं। आईआईटी रुड़की के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन डिजास्टर मिटिगेशन एण्ड मैनेजमेंट विभाग के प्रो. पीयूष श्रीवास्तव और प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलो आनंदू प्रभाकरन ने हाल ही में जंगलों की आग को लेकर विशेष अध्ययन किया है। प्रो. पीयूष बताते हैं कि 2013 से 2022 तक उत्तराखंड का करीब 23 हजार हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आया है। इसके पीछे बेहद जटिल भौगोलिक स्थितियां भी कारण रही हैं। वहीं मिश्रित जंगलों का होना सूखी पत्तियों और चीड़-देवदार के निडिल का ईंधन है, जिन्हें ड्राई फ्यूल कंडिशन कहते हैं। हम इंसानों द्वारा गलती से या जानबूझकर लगाई गई आग भी पहाड़ की बर्बादी का कारण बन रही है। चीड़ की पत्तियां, जिन्हें पिरूल कहा जाता है, गर्मी होते ही वह हवा के साथ पेड़ों से झड़ने लगती हैं और इनमें आग बहुत तेजी से फैलती है। इसी तरह गर्मी के सीजन में चीड़ के जंगलों में लीसा निकालने का सीजन शुरू हो जाता है। लीसा इतना ज्वलनशील होता है कि उसमें लगी आग पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी स्वयं जंगलों में लगी आग का जायजा लेने रुद्रप्रयाग पहुंचे थे। उन्होंने कहा, ’’वनाग्नि को रोकने के लिए सरकार ’पिरूल लाओ-पैसे पाओ’ मिशन पर भी काम कर रही है। जंगल की आग को कम करने के उद्देश्य से पिरूल कलेक्शन सेंटर पर 50 रुपये किलो की दर से पिरूल खरीदा जाएगा, जिसे पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड द्वारा संचालित किया जाएगा।’’
जंगलों में लगी भयानक आग की वजह से हवा की गुणवत्ता बिगड़ रही है। हवा में ज्यादा कार्बन कण मिल रहे है। तेज चलती हवा के साथ ये प्रदूषित कण दूर-दूर तक फैल रहे हैं। ये प्रदूषित कण ग्लेशियरों पर जमा होंगे। इससे ग्लेशियर के पिघलने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में चमोली और केदारनाथ जैसे हादसे भी हो सकते हैं। इन दिनों अल-नीनो की वजह से गर्मी बढ़ी हुई है, हीटवेव चल रही है। पारा ऊपर है। सर्दियों के मौसम में बारिश कम हुई है। 2015-16 में भी ऐसी ही हालत बनी थी, तब 2016 में 4,400 हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आए थे।
गर्मियों में लगने वाली आग की वजह से पहाड़ी मिट्टी और सतह कमजोर हो जाती है। इसके बाद बारिश आने पर ये मिट्टी खतरनाक हो जाती है। लैंडस्लाइड होते रहते हैं। फ्लैश फ्लड की आशंका रहती है। गंदी मिट्टी बहकर नदियों, नालों में मिलती है। इससे नदियों की जल-गुणवत्ता खराब हो जाती है। वैज्ञानिकों को आशंका है कि ये आग इंसानों द्वारा गलती से या फिर जानबूझकर लगाई गई है। जंगल की आग के 95 प्रतिशत मामलों में इंसानी गतिविधियां ही मुख्य कारण हैं। किसी ने जलती बीड़ी पीकर फेंक दी, पत्ता या कूड़ा जला दिया, उसी से आग की घटनाएं बलवती हो जाती हैं। पहले बारिश, बर्फबारी और नमी की वजह से आग बुझ जाती थी, लेकिन अब ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से तापमान बढ़ता जा रहा है। इस कारण आग आसानी से नही बुझ पाती।
अब जरा सी चिंगारी पूरे जंगल को खाक करने की ताकत रखती है। अगर पहाड़ों पर मौजूद स्थानीय लोगों को मौसम से संबंधी सटीक जानकारी दी जाए, उन्हें ये बताया जाए कि ये मौसम आग लगने का है। कोई ऐसी गलती न करें, जिससे जंगल में आग पकड़े, खासतौर पर ढलानों वाले इलाके में आग न जलाई जाएं, कूड़ा न जलाया जाए, तभी आग के हादसे रोके जा सकते हैं। स्थानीय लोगों की जागरुकता ही जंगलों को जलने से बचा सकती है।
जंगल की आग कब लग सकती है ? कहां लग सकती है ? इसे लेकर एक स्वदेशी अर्ली वॉर्निंग सिस्टम बनाया जा रहा है, जो कि खास तरह का कम्प्यूटर मॉडल होगा, जो खास तापमान, मौसमी स्थितियों, भौगोलिक परिस्थितियों के ताजा डेटा डालने पर जंगल की आग की भविष्यवाणी कर सकेगा। इससे भविष्य में जंगली आग की जानकारी पहले मिल जाएगी। उससे बचने की तैयारी पहले पूरी कर ली जाएगी। भविष्य में इसरो-नासा के नए सैटेलाइट निसार से भी इसमें मदद मिल सकती है।
इस भीषण आग को बुझाने के प्रयास में भारतीय वायु सेना के जवानों और एमआई-17 हेलिकॉप्टरों की तैनाती की गई, बम्बी बकेट नामक एक ऑपरेशन में, हेलिकॉप्टर आग बुझाने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में पानी इकट्ठा करके जेट-स्प्रे किया गया है। अभी तक आग से 108 हेक्टेयर जंगल जलकर खाक हो चुका है। उत्तराखंड के वन विभाग द्वारा जारी एक दैनिक बुलेटिन के अनुसार, 24 घंटों में राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में जंगल में आग लगने की 26 घटनाएं हुईं, जबकि गढ़वाल क्षेत्र में पांच घटनाएं हुईं, जहां 33,134 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। आग से लड़ने के लिए कुमाऊं में भारतीय सेना की दो टुकड़ियां भी तैनात की गई हैं। वहीं उत्तराखंड में नवंबर से अबतक 910 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। उत्तराखंड में 1,145 हेक्टेअर से अधिक वन क्षेत्र में लगी आग ने अबतक पांच जिंदगियां लील ली हैं, जबकि पांच अन्य लोग उसकी चपेट में आकर आंशिक रूप से झुलस चुके हैं। पहली आग लगभग छह महीने पहले भड़की थी और अबतक फैल ही रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तराखंड की भयावहता भी कैलिफॉर्निया के जंगल की आग से अलग नहीं है।
अमेरिका हो या उत्तराखंड, जंगल में भड़की आग को बुझाने में विज्ञान भी फेल हो गया है। उत्तराखंड में जंगल धू-धूकर जल रहे हैं। हर साल करीब 1,978 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से जल जाता है। इससे वनस्पति एवं जैविक संपदा का भारी नुकसान तो होता ही है, हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित होता है। पिछले 12 वर्षों में उत्तराखंड के जंगलों में आग की 13,574 घटनाएं हुई हैं, फिर भी आग बुझाने की विभागीय तकनीक आधुनिक न होकर पारंपरिक ही है। हालांकि तीन-चार वर्षों से वनाग्नि की सूचना प्रसार के लिए ड्रोन का उपयोग किया जाने लगा है। जबकि आवश्यकता नई तकनीक के इस्तेमाल के साथ जवाबदेह व्यवस्था विकसित करने की है। इसी कमी के कारण जंगलों में आग लगाने वालों को दंडित किए जाने के उदाहरण कम मिलते हैं। जंगलों में लगने वाली आग सतह पर ही फैलती है जिससे पेड़ों को कम नुकसान होता है, लेकिन छोटे पौधों एवं बहुमूल्य वनस्पतियों को इससे काफी हानि होती है। यह जंगलों में पनपने वाली जैवविविधता के लिए भी बड़ा खतरा है।
जंगल में आग के दो कारण हैं। पहला मानवजनित तो दूसरा प्राकृतिक। मानवजनित कारण भी दो तरह के हैं। छोटी-छोटी लापरवाही वन संपदा के लिए घातक हो जाती है। बीड़ी-सिगरेट या घरों के आसपास झाड़ियों में लगाई गई आग को बहुत सामान्य तौर पर लेते हैं और यही आग अक्सर पूरे जंगल को सुलगा देती है। मानवजनित कारणों में कुछ असामाजिक तत्व अपने काले कारनामों को अंजाम देने के लिए इरादतन आग लगा देते हैं। कभी जंगली जानवरों के शिकार के लिए तो कभी आग के बाद उगने वाली हरी-घनी घास के लिए यह खतरनाक खेल खेलते हैं। कई बार वन विभाग के ही भ्रष्ट लोग अपने काले कारनामों पर पर्दा डालने के लिए भी रक्षक से भक्षक बन जाते हैं। इस आग से हवाई पौधरोपण एवं अवैध कटान पर भी पर्दा पड़ जाता है। यह स्पष्ट है कि वनों की आग का मुख्य कारण लापरवाही है।
कई बार प्राकृतिक रूप से भी जंगलों में आग लग जाती है। जानवरों की आवाजाही से ऊंचे पहाड़ों से पत्थर लुढ़कते हैं, जो कई बार टकराहट में चिंगारी छोड़ जाते हैं। यह चिंगारी जब सूखी घास एवं पत्तियों के संपर्क में आती है, तो जंगल में आग की घातक कहानी लिख जाती है। जंगलों की आग के लिए काफी हद तक चीड़ के पेड़ भी जिम्मेदार हैं। इनकी सूखी पत्तियां गर्मियों में जंगलों में आग फैलाने में पेट्रोल सरीखा काम करती हैं। साथ ही ये बारिश के पानी को जमीन में रिसने से रोकती हैं। चीड़ के जंगलों में कोई और पौधे नहीं पनप सकते। चीड़ की यह असहिष्णुता एवं विस्तारवादी प्रवृत्ति उत्तराखंड के वनों के लिए बड़ी चुनौती है। चीड़ के जंगलों को सुनियोजित तरीके से उपयोगी पेड़ों के जंगल में परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है, परन्तु चीड़ के जंगल लगातार विस्तार पा रहे हैं। जिन क्षेत्रों में चीड़ दिखाई नहीं देता था, वहां भी आज चीड़ के पेड़ विस्तार पा चुके हैं। जंगल की आग पर काबू पाने के तौर-तरीकों में नई तकनीक का प्रयोग जिस गति से होना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा है। ड्रोन का प्रयोग केवल सूचना के त्वरित प्रसार तक ही सीमित है।
लीफ ब्लोअर (सूखे पत्रों को हवा से साफ करने वाली मशीन) का उपयोग अभी तक आम नहीं हो पाया है। कृत्रिम बारिश अभी तक सोच के स्तर तक ही है। कुल मिलाकर अंग्रेजों के जमाने से अबतक अगर आग बुझाने का कोई कारगर उपाय दिखता है तो वह है झांपा। झांपा पेड़ों के हरे पत्तों से युक्त टहनियों से बनाया गया बड़ा झाड़ू ही होता है, जिससे दूर से ही खड़े होकर आग बुझाई जाती है। उत्तराखंड के विभिन्न जंगलों में आग की कई घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। जंगल का इलाका ऊबड़-खाबड़ और खड़ी ढलान वाला है, जहां घनी वनस्पतियां हैं। इस कारण प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने और वहां इधर से उधर आ-जा पाना आसान नहीं है। उत्तराखंड में कई वन क्षेत्रों की तरह अक्सर सूखे और तेज हवाएं चलती हैं, जो जंगल की आग को भड़काने में काफी मददगार होती हैं। सूखी वनस्पति आग के लिए ईंधन का काम करती है, जबकि तेज हवाएं तेजी से लपटों और अंगारों को आगे बढ़ाती हैं, जिससे आग अप्रत्याशित रूप से और बड़े क्षेत्रों में फैल सकती है।
उत्तराखंड के वन अधिकारियों ने भी आग के तेजी से फैलने का कारण तेज हवाओं को बताया, जिसने इसे क्राउन फायर में बदल दिया है। उत्तराखंड में जंगल की आग की घटनाएं मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण होती हैं। उन्होंने कहा कि स्थानीय लोग कभी-कभी कृषि या पशुधन चराने के लिए क्षेत्रों को खाली करने के लिए घास के मैदानों में आग लगा देते हैं। इससे अंजाने में जंगल की आग भड़क जाती है। इसके अलावा, इस प्री-मानसून सीजन में कम बारिश के कारण मिट्टी की नमी की कमी और जंगल में मौजूद सूखी पत्तियों, चीड़ की सुइयों और अन्य ज्वलनशील पदार्थों की उपस्थिति ने भी ऐसी घटनाओं में योगदान दिया है।
चमोली पुलिस ने गैरसैण इलाके में स्थित एक जंगल में आग लगाने के आरोप में तीन लोगों को गिरफ्तार किया है। आरोप है कि इन लोगों ने कथित तौर पर जंगल में लगी आग की घटना का वीडियो रिकॉर्ड किया और सोशल मीडिया पर लाइक, व्यू और फॉलोअर्स बढ़ाने के लिए शेयर कर दिया।
हालांकि आग बुझाने के लिए तकनीक मौजूद है, लेकिन जंगल की विशेष परिस्थितियों के कारण ये बहुत कारगर साबित नहीं हो पाती। उदाहरण के लिए, पानी की बाल्टियों या टैंकों से लैस हेलीकॉप्टर आग की लपटों और हॉटस्पॉट पर पानी गिराने में सहायक हो सकते हैं, लेकिन उनका उपयोग उपलब्धता, मौसम की स्थिति और जल स्रोतों की पहुंच जैसे कारकों से सीमित हो सकता है। इसी तरह, जंगल की आग की प्रगति को धीमा करने के लिए विशेष अग्निरोधी रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है। उत्तराखंड के वन अधिकारियों ने भी आग के तेजी से फैलने का कारण तेज हवाओं को बताया, जिसने इसे क्राउन फायर में बदल दिया है।
इसी तरह, जंगल की आग की प्रगति को धीमा करने के लिए विशेष अग्निरोधी रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इसके इस्तेमाल में कई तरह की समस्याएं हैं। बात सिर्फ आग की लपटों पर काबू पाने की नहीं, अग्निशामक तकनीक की उपलब्धता के बावजूद जंगल की आग से निपटने के लिए अक्सर बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जो केवल लपटों को बुझाने से कहीं आगे तक जाती है। इन रणनीतियों में अग्निरोधक क्षेत्र तैयार करना है। अग्निरोधक क्षेत्र वो इलाके होते हैं जहां बिल्कुल सफाई होती है, कोई जंगल-झाड़ नहीं, ताकि वहां आग पकड़ने या वहां से आग बढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं रहे। इसी तरह, गर्मी आने से पहले आसानी से आग पकड़ने वाले इलाकों में छोटे पैमाने पर आग लगाकर झाड़ियों को जला देने से भी बड़ी आग का वाहक खत्म हो जाता है।
जमीनी स्तर पर काम करने वाली अग्निशमन टीमें जंगल की आग से सीधे निपटने में अहम भूमिका निभाती हैं। वो अक्सर आग की लपटों को दबाने और आगे के इलाकों की सुरक्षा के लिए हाथ के औजार, पाइप और आग को रोकने वाले फोम जैसे औजारों का इस्तेमाल करती हैं। इसके अलावा हेलीकॉप्टर, एयर टैंकर और ड्रोन आदि से पानी या आग रोकने वाले अन्य पदार्थों को प्रभावित इलाकों में पहुंचाया जाता है। साथ ही, आग कैसा रुख अपना सकती है, इसका आकलन करने और जिन क्षेत्रों में प्राथमिकता से जरूरी कदम उठाए जाने हैं, उनकी पहचान करने के लिए टोही मिशन भी चलाया जाता है। आग कितनी भीषण है, मौसम की स्थिति कैसी है और आग बुझाने के संसाधन कैसे हैं, इन सब कारकों से तय होता है कि आग पर काबू पाना कितना कठिन या आसान होगा।
उत्तराखंड सरकार ने हाल ही में आग बुझाने के लिए जो तत्परता दिखाई है, वैसे आग लगने के समय ही दिखाई होती तो अबतक आग पर नियंत्रण हो गया होता। वास्तव में आग वातानुकूलित कक्षों में बैठकर मंत्रणा करने से नहीं, मौके पर जाकर ठोस कार्रवाई से ही बुझ सकती है। वहीं वन तस्करों द्वारा आग लगाकर जंगलों को काटने से रोकने पर भी सख्ती करनी होगी। चार्ल्स डार्विन ने सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट में कहा था कि हर प्राणी को खाने के लिए भोजन व रहने के लिए स्थान चाहिए। उन्हें उन प्राणियों से बचाव के लिए जगह चाहिए, जो उदरपूर्ति के लिए उन्हें मारना चाहते हैं। उन प्राणियों का इलाका चाहिए जहां उनके शिकार जीव या वनस्पति सहजता से उपलब्ध हो। इसके लिए इंसानों व अन्य जीवों ने हर तरह के तरीके अपनाए, तभी तो कब्जेदारों, आक्रमणकारी प्रजातियों और बचने वालों के बीच लगातार जंग चलती है, जो भारी पड़ता है वो सर्वाइव करता है, बाकी बचे कमजोर या तो संख्या में कम हो जाते हैं, या फिर खत्म हो जाते हैं। कभी लकड़ी के लालच में अंग्रेजों ने चीड़ और देवदार के जंगल लगाए थे, जिससे उत्तराखंड के जंगलों का वेजिटेशन मिक्स हो गया है, जिसे सरकारों और पूर्वजों ने आजतक नहीं सुधारा।
लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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