राजेश कुमार द्विवेदी
दोनों का कार्य छूरे की धार पर चलने के समान है। दोनों में एक चीज कॉमन है, वह है ‘निर्भीकता’। सारे लेखक पत्रकार नहीं होते, पर सारे पत्रकार लेखक होते हैं। जो लेखक पत्रकार बनते हैं, वे तमाम अज्ञेय लेखकों को अवसर देते हैं। पत्रकारिता अधिकतम आधुनिक मूल्यों की वकालत करती नजर आती है, भले ही वह अशोधित क्यूं न हों, जबकि लेखन गहन चिंतन और परिवर्तनों की। संतुलन बनाने की रिवाजों ने पत्रकारिता को ऐसा मोड़ा कि कमोबेश सारा पत्रकारिता जगत ज्यादा महत्व की सूचना की बराबरी में कम महत्व की सूचना को भी रख देते हैं और बहुधा कम महत्व की सूचना को ज्यादा महत्व की सूचना के बराबर। पत्रकारिता में यह फिल्टरीकरण एक अनावश्यक लोच पैदा करता है। लोच अच्छा हुआ तो ठीक, किंतु यदि लोच बुरा हुआ तो कभी भी, कैसे भी घातक सिद्ध हो सकता है। जैसे एक राजनैतिक दल का दूसरे राजनैतिक दल से तथाकथित संतुलन या सभी प्रचलित धर्मों का सांस्कृतिक परिवेश से परे गैर जरूरी संतुलन। रोजगार से जुड़े स्वाभाविक पत्रकारिता के जगत में ‘जस का तस’ रख पाना एक चुनौती बना रहता है। दैनिक ‘आज’ के सम्पादक पराड़कर जी ‘क्या लिखूं ?’ जैसे अमर सम्पादकीय में इन द्विविधाओं को इंगित करते हैं। ऐसी दशा में मानवता की भलाई के तंतुओं की समझदारी बड़ी सहायक सिद्ध हो सकती है।
पत्रकारिता तात्कालिक प्रभाव डालती है, जबकि लेखन अमूमन कॉन्सेप्ट देता है, अतः दूरगामी परिणाम होते हैं। कार्ल मार्क्स का ‘दास कैपिटल’ लेखन का ऐसा उदाहरण है, जिसने ‘रेलीजन अफीम है’ तथा ‘दुनिया के मजदूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिये जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है’ जैसे विचारों से दुनिया को कई दशकों तक उलट-पुलट कर डाला। किसी ‘नई सुबह’ के लालच में ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाहियों’ ने असंख्य हत्याएं कीं। शेक्सपीअर के लेखन ‘मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’ का ‘यहूदी’ खून चूसने वाले सूदखोर व्यापारी के रूप में अतिचित्रित होकर हिटलरयुग के यहूदियों का कुत्सित ‘घेटो या आश्वित्ज’ यातनाघर में अनावश्यक संत्रास भुगतता है। यही नहीं, दुष्ट हिटलर तो दार्शनिक नीत्जे के ‘उबेरमैन’ विचार का नस्लीय दुरूपयोग करने से भी बाज नहीं आया।
गांधी जबतक गहन चिंतन के साथ रहे, ‘ग्राम स्वराज’ जैसी क्रांतिकारी पुस्तक दी, पत्रकारिता आजमाते ही उनको आधुनिक मूल्य कचोटने लगे। परिणाम भारतवर्ष के असहज विखंडन और अनावश्यक सामाजिक तबाही के रूप में सामने आया, जिसका भुगतान आजतक भारतीय कहलाने वाले भुगत रहे हैं। दूसरी तरफ अलेक्जेण्डर सोल्झेनित्सन की ‘गुलाग आर्कीपेलोगे’ तथा फ्योदोर मिखाइलोविच दोस्तोवेस्की की ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ जैसे लेखन कालांतर में मिखाइल गोर्बाचेव के ग्लासनोस्त तथा पेरेस्त्रोइका जैसी धारणाओं को पनपने देने और सोवियत संघ के विघटन का कारक बने। वहीं आइन रैंड की ‘एटलस श्रग्ड’ तथा ‘फाउन्टेनहेड’ के द्वारा आब्जेक्टिविज्म की घोर पूंजीवादी विचारधारा गरीबी से अतिशय घृणा करती हुई सामने आई। ऐसे में लियो टालस्टाय अपने लेखन ‘वार एंड पीस’ से सार्थक मानवीय पहल करते दिखाई देते हैं और उन्हीं के समकक्ष खड़े रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने लेखन ‘गीतांजलि’ से समग्र मानवता को दैवीय सौन्दर्य से अभिभूत करते हैं। महर्षि अरविन्दो का लेखन ‘सावित्री’ ऐसी ही एक दिव्य क्रांतिगाथा है। जिद्दू कृष्णमूर्ति का लेखन चिंतन से कहीं विलग नहीं हो पाता।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचन्द, धर्मवीर भारती, राजेन्द्र अवस्थी जैसे लोग पत्रकारिता में होकर भी मूलभूत रूप से लेखन से ही जुड़े थे। कौन जानता है कि बालगंगाधर तिलक एक अखबार के संपादक होते हुए भी ‘ओरियन’ नामक अंग्रेजी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक का लेखन भी किये, जिसे इंग्लैण्ड की रायल सोसाइटी ने प्रकाशित किया था, जिसमें इन्होंने ओरियन नेबुला के आधार पर वेदों के प्रकटन के देशकाल की सटीक गणना की थी। वहीं दूसरी ओर ‘इस्क्रा’ के सम्पादक व्लादीमीर इलिच उलियानोव लेनिन पत्रकारिता को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते दिखते हैं और बोल्शेविक सत्ताधारी बन जाते हैं। लांग मार्च करने वाले माओत्सेतुंग की ‘लाल किताब’ किस हद तक लेखन है और किस हद तक पत्रकारिता, कहना कठिन है।
आज की पत्रकारिता पिं्रट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा टर्निंग पाइंट के रोल को अदा कर रही है। लेखन भी ब्लॉगर्स के जरिये इलेक्ट्रॉनिक हुआ चाहता है। ई-मैग्जीन्स ने लेखन और पत्रकारिता को नये आयाम दिये हैं। इन सबमें एक नये अनुशासन के दिग्दर्शन होते हैं, जिनका सोशल मीडिया में पूरा अभाव दिखता है।
आजकल कुछ लेखक गंदगी परोसते हुए अपने को अपने लेखन की अंतर्वस्तु से यह कहकर सर्वथा विलग कर लेते हैं कि उन्होंने ‘वर्णन’ नहीं, बल्कि ‘विवरण’ दिया है, जबकि ‘स्कैचिंग या शाब्दिक-फोटोग्राफी’ जैसे टूल्स का उपयोग पत्रकारिता जगत के द्वारा सार्थक ‘रिपोर्टिंग’ के लिए किया जाता है। किसी भी अभद्र लेखन के लिए पत्रकारिता के टूल्स का दुरूपयोग किया जाना किसी भी नजरिये से न्यायसंगत नहीं। पत्रकारिता में तटस्थता रिर्पोर्टिंग को ज्यादा धारदार बनाती है, बशर्ते किसी भी सार्वकालिक सत्यों की अवहेलना न हो।
विश्व का सबसे बड़ा सम्पादक तो अदृश्य है। आप अपनी सुनामी बचायेंगे तभी वह अपनी सुनामी बचा सकेगा। उसका तो लगता है एक ही संदेश है कि सुधर जाओ वरना सब नष्ट हो जाओगे। बड़ी मुश्किल से यह धरती जीवन की एकमात्र आशा के रूप में उभरी है। केवल नया कान्सेप्ट देने की गरज से नहीं, हर सोचने वाले को मूलाधार सत्य को पहचानने की तमीज विकसित करनी होगी। ऋतुओं के रूप में उसके पत्रकार चलते हैं तथा अबूझ सत्यों की अनंतशीलता के साथ उसके लेखक। वक्त रहते चेतावनी भरे संकेत पकड़ने होंगे। परिमार्जन के संस्कृतादेश समझने होंगे। मानवीयता को सर पर बैठाना ही है। प्रकृति को सबकी माता मनवाना ही है। जानने योग्य को जनवाना ही है। अन्यथा वह प्राकृतिक सुधारों के लिए अपने पत्रकारों और लेखकों को धरती की जीवनीशक्ति बिगाड़ने वालों के एवज में छुट्टा छोड़ ही चुका है, जो न सुधरने की जिद पर अड़े लोगों को सुधरने लायक रहने ही नहीं देंगे।
आपके व्यक्तित्व का तराजू कैसा है ? टटोलिये, अपने आप को ! आप अंदर से पत्रकारिता के पलड़े पर हैं या लेखक के पलड़े पर ! स्वागत है आपका दोनों विमाओं में, किंतु अपने को पहचानिये जरूर कि आप में मूलतः पत्रकारिता रेंग रही है या लेखन की गुप्त गोदावरी, ताकि आप उन सावधानियों से परिचित हो सकें, जिससे मानवता का सृजन हो, विनाश नहीं।
सच पूछा जाये तो इन विधाओं पर परिमार्जन की पद्धति वाले अघोषित आवरण की जरूरत है, जो एक मेडीकेटेड पट्टी की तरह काम करे। इति। समादर सहित।
श्री राजेश कुमार द्विवेदी ‘नये पल्लव प्रकाशन’ के संपादक मंडल से संबद्ध हैं।
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