नीना गुप्ता का सच

Neena Gupta

बॉलीवुड के अनकहे किस्से

अजय कुमार शर्मा

नीना गुप्ता अच्छी अभिनेत्री हैं। वह दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। वह फिल्म निर्माता और टेलीविजन पर्सनैलिटी भी हैं। उन्होंने अस्सी के दशक में दिल्ली के थियेटर से अपना कॅरियर शुरू किया। 1982 में ऑस्कर पुरस्कार विजेता फिल्म गांधी में अभिनय के बाद फिल्म और टेलीविजन के लिए काम करने का फैसला किया। उन्होंने कई चर्चित और लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिकों जैसे खानदान और मिर्जा गालिब में अभिनय किया। उन्होंने मंडी, त्रिकाल और जाने भी दो यारो जैसी कला फिल्मों में काम किया। उन्होंने सांस, सिसकी और सोन परी समेत कई टेलीविजन धारावाहिकों का निर्देशन, निर्माण और उनमें अभिनय भी किया। लेकिन, उनकी दूसरी पारी की कामयाबी चौंकाने वाली है, जिसमें - शुभ मंगल, ज्यादा सावधान, पंचायत, द लास्ट कलर, मसाबा मसाबा और बधाई हो - जैसी फिल्में और ओटीटी शो शामिल हैं। 

मीडिया में उन्हें इस तरह पेश किया जाता रहा है कि वह बहुत ही मजबूत, ईमानदार और ऐसी लड़की हैं जो समाज की चिंता नहीं करती। वह जन्मजात विद्रोही हैं, क्योंकि उन्होंने बिना शादी के एक बच्ची पैदा की, वह अपने संबंधों को छिपाने की कोशिश नहीं करती। वह आत्मविश्वासी है, क्योंकि वह हमेशा अपना सिर ऊंचा रखती हैं। लेकिन नीना गुप्ता कई मामलों में इससे बिल्कुल उलट हैं। यह सब सच और कई अन्य जानकारियां उनकी हाल ही में आई आत्मकथा सच कहूं तो को पढ़कर, पाठक जान सकते हैं। मीडिया और अपने प्रशंसकों तक अपना सच पहुंचाने के लिए ही उन्होंने यह आत्मकथा लिखी है।

आत्मकथा उन्होंने करोलबाग, दिल्ली के रैगरपुरा की गली न.1 के अपने घर, जो कि प्रोफेसर अरोड़ा (रिश्ते ही रिश्ते के लिए मशहूर), के पड़ोस में था, से शुरू की है। पचास मीटर के छोटे से दो मंजिला मकान में उन्हें याद है कि गर्मियों के दिनों में छत पर खाट बिछा कर सोते थे। उनके किचन में गैस जमीन पर थी और उनकी मम्मी जमीन पर पटरे पर बैठकर खाना बनाती थी। गली में कई फेरीवाले दिन भर अलग-अलग आवाज लगाकर खाने-पीने और घर में काम आने वाले सामान बेचा करते थे। यानी बहुत सामान्य परिवार में आम लोगों की तरह ही उनकी परवरिश हुई। परिवार में मां शंकुतला गुप्ता, पिता रूप नारायण गुप्ता और ढाई साल छोटा भाई पंकज गुप्ता था। उनके पिता की यह दूसरी शादी थी। उनके पिता की दूसरी पत्नी और उनका परिवार भी दिल्ली में ही रहता था, जिसकी जानकारी उन्हें बाद में हुई।

नीना अपनी मां, जो उस समय की डबल एमए थीं, की आइडियोलॉजी से बड़ी प्रभावित थीं। गणित में कमजोर होने पर भी विद्या भवन से उन्होंने हायर सेकेंडरी की और स्कूल में टॉप किया, फिर मां के कहने पर जानकी देवी महाविद्यालय में एडमिशन जोकि उस समय भेंजी कॉलेज के नाम से मशहूर था। यह वह समय था, जब उनको पैंट पहनने पर बैड गर्ल या फैशनेबल कहा जाता था। कॉलेज में वे हॉकी खेलतीं और थियेटर करतीं। ऐसे ही एक प्रतियोगिता में बंगाली लड़के अम्माल से मिलीं और शादी कर ली, हालांकि यह शादी एक साल भी नहीं चली। इसी दौरान किरोड़ीमल कॉलेज में उनकी मुलाकात सतीश कौशिक से हुई और नाटकों में पूरे तरीके से काम की शुरुआत हुई।

1977 में उन्होंने एनएसडी में दाखिला लिया। इस ग्रुप में आलोक नाथ, रविशंकर खेमू, आलोपी वर्मा और संजीव दीक्षित उनके साथ थे। एनएसडी पास करने के बाद वहां की रिपेटरी में नौकरी की, बजाए उन्होंने फ्रीलांस एक्टिंग करना शुरू की, जो उस समय एक बोल्ड निर्णय था। तभी अशोक आहूजा की पहली फिल्म आधारशिला में काम मिला, जहां खुद से आने-जाने के अलावा खाना-पीना और कास्ट्यूम भी खुद ही बनाकर या खरीदकर पहननी पड़ती थी । इसी दौरान दिल्ली में बनी गांधी फिल्म में आभा बेन के रोल के अच्छे पैसे मिले, तो दोस्त सचिन के साथ मुंबई आ गईं स्ट्रगल करने । यह साल 1981 था। यहां रहने और काम पाने की मुश्किलों के बीच एक विज्ञापन हॉकिंस कुकर का मिला, जिससे उन्हें थोड़ी पहचान मिली। इधर, साथ-साथ, मंडी, सूरज का सातवां घोड़ा, जाने भी दो यारो, त्रिकाल और उत्सव जैसी फिल्मों में छोटे-बड़े रोल किए, लेकिन बड़ी पहचान नहीं मिली।

बड़ी पहचान 1985 में उन्हें खानदान सीरियल से मिली, जिसमें उन्होंने केतकी का रोल किया था। इसी दौरान बंटवारा फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाकात जयपुर में वेस्टइंडीज के प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी विवियन रिचर्ड्स से हुई और वह शीघ्र ही बिना ब्याहे उनकी बेटी मसाबा की मां बनी। टीपू सुल्तान की शूटिंग के दौरान वहां आग लगी, उसमें वे मसाबा के कारण ही बचीं। 1993 में खलनायक फिल्म के गाने चोली के पीछे क्या है के लिए उन्हें बहुत पैसे तो नहीं मिले, लेकिन इसकी लोकप्रियता से उन्हें स्टेज शो जरूर मिलने लगे और उनका खाना-पीना चलता रहा। इसी दौरान वो छोकरी फिल्म के लिए उन्हें सपोर्टिंग रोल का और दिल्ली के अपने मोहल्ले बाजार सीताराम पर एक डॉक्यूमेंट्री के लिए नेशनल अवार्ड मिला। इस बीच पूर्व विवाहित और तलाकशुदा सीए विवेक मेहरा से उनकी शादी हुई और वे टीवी और फिल्मों से दूर चली गईं। लेकिन 2018 में आई उनकी फिल्म बधाई हो से तो उनका जीवन ही बदल गया। आज वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर हैं।

नीना गुप्ता ने इस आत्मकथा में अपनी स्ट्रॉन्ग वूमेन की छवि पर तंज कसते हुए दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। पहला वह, जब उन्होंने कॉलेज के इलेक्शन में खड़े होने की सोची, लेकिन फिर मिली एक धमकी कि अगर तुम खड़ी होगी तो तुम्हें उठा लिया जाएगा, तुम्हारे साथ ये किया जाएगा - वो किया जाएगा, से डरकर उन्होंने इलेक्शन नहीं लड़ा। बहुत लोग बोलते हैं, ’स्ट्रांग वुमन, इंडिपेंडेंट वुमन नीना गुप्ता।’ पर मुझे यह बताने में कोई झिझक नहीं है कि मैं एक बहुत ही डरपोक और कायर किस्म की बच्ची थी। मुझमें कोई हिम्मत ही नहीं थी किसी से बहस करने की। जैसे एक छोटी-सी बात और बताती हूं : हमारी गली के पीछे दूध वाला भैंस लेकर आता था और हमसब लोग अपनी-अपनी छोटी-छोटी बाल्टियां और बर्तन वहां लाइन में लगा देते थे। सुबह दूध लाने की मेरी ड्यूटी होती थी। एकदिन किसी ने मेरा बर्तन हटाकर अपना बर्तन आगे रख दिया, तो बजाय उससे लड़ने के, बहस करने के, मैं रोती-रोती घर आ गई और शिकायत की कि ’मम्मी-मम्मी, देखो उसने मेरा बर्तन उठाकर अपना बर्तन आगे कर दिया।’ मैं ऐसी दब्बू किस्म की बच्ची थी और बहुत जल्दी डर जाती थी।

लेखक, वरिष्ठ कला-साहित्य समीक्षक हैं।

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