प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप
गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा - हे अर्जुन! मनुष्य के हृदय में जब ज्ञान आकर उपस्थित होता है, तब बाहर भी उसके बहुत से चिन्ह प्रकट होने लगते हैं।
जो शास्त्रों के संबंध में बकवाद करना छोड़कर चुपचाप एकान्त में पड़ा रहना पसंद करता है, जो हृदय से यह चाहता है कि संसार मेरा अपमान और उपेक्षा करे और मेरे सगे-संबंधी मेरी ओर आँख उठाकर देखे भी नहीं, जो अपना आचरण प्रायः ऐसा ही रखता है कि उसमें हीनता और तुच्छता ही शोभा दे और अंगों पर हीनता के ही भूषण चढ़े, जो मेरे संबंध में लोगों की यही भावना रहे कि यह जीवित नहीं है, यह बिल्कुल है ही नहीं, इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है, जिसकी चाल-ढाल ऐसी होती है कि लोगों को यह भ्रम होता है कि यह चलता है या हवा के साथ लुढ़कता-पुढ़कता चला जा रहा है, जो सदा यही चाहता है कि मेरा अस्तित्व ही न रह जाय, मेरा नाम और रूप भी नष्ट हो जाय, मुझे देखकर भूत-प्रेत भयभीत होकर दूर भाग जाय, जो सदा एकान्त में ही रहता है और जो निर्जन प्रदेश की कल्पना से ही जिसकी जान में जान आती है, जिसकी केवल वायु के साथ ही पटती है, जिसे आकाश के साथ बातें करना ही अच्छा लगता है और वृक्ष ही जिसे सबसे ज्यादा अच्छे लगते हैं।
हे अर्जुन ! जिस पुरुष में तुम्हें ये सब लक्षण दिखाई पड़े, उसके संबंध में यह समझ लो वह ज्ञान में तल्लीन हो गया है। जो प्राणों पर संकट आने पर भी कभी यह नहीं बताता कि मैंने कौन-कौन से पुण्य कर्म किये हैं, जो अपने दान आदि पुण्य कर्म सदा गुप्त रखता है, जो शरीर के दिखावटी चोंचले नहीं करता, जो लोगों को प्रसन्न करने के झगड़े में नहीं पड़ता और अपने धार्मिक कृत्यों की चर्चा नहीं छेड़ता, जो अपने किये हुए उपकारों का कभी मुंह से उच्चारण भी नहीं करता, जो अपनी सीखी हुई विद्या लोगों को दिखाता नहीं फिरता और अपना सम्पादित किया हुआ ज्ञान लौकिक कीर्ति के लिए नहीं बेचता, जो शारीरिक विषयों का उपयोग करने के लिए कानी-कौड़ी भी खर्च नहीं करता, परन्तु धार्मिक कृत्यों के लिये अपना सारा धन व्यय करने में भी जो आगा-पीछा नहीं करता, जिसके घर में तो प्रत्येक बात में दरिद्रता दिखाई दे और शरीर दुर्बल तथा दीन-हीन दिखाई पड़े, परन्तु जो दान देने में कल्पतरू के साथ भी प्रतिज्ञापूर्वक स्पर्धा करता हो। इसी प्रकार वह परम साधना का मार्ग तो पूरी तरह से जानता हो, परन्तु लौकिक बातों में बिल्कुल दीन-हीन दिखाई पड़ता हो।
हे अर्जुन ! जिसमें ये सब लक्षण अच्छी तरह से दिखाई पड़े, उसके संबंध में समझना चाहिये कि ज्ञान उसकी मुट्ठी में आ गया है। साधारणतः तो वह कुछ बोलता ही नहीं, परन्तु यदि वह कभी अपने मन में बोलने का कुछ विचार करता है, तो उसके शब्द इतने कोमल होते हैं कि उसने कभी किसी को कुछ भी कष्ट नहीं पहुँचता। जब वह बोलने लगता है, तब कभी-कभी बहुत अधिक भी बोल जाता है, परन्तु उसकी बातों से कभी किसी के मन में कुछ भी कष्ट नहीं होता और किसी को उससे डर नहीं लगता।
हे अर्जुन ! सच्चे ज्ञानी पुरुष में क्षमा भरी हुई रहती है। इस क्षमा को पहचानने के लक्षण अब मैं तुमको स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ, सुनो ! जिस प्रकार कोई बहुत अच्छा लगने वाला आभूषण हम बड़े चाव से अपने शरीर पर धारण करते हैं, उसी प्रकार चाव से वह पुरुष सब बातें सहन करता है।
यदि तीनों प्रकार के तापों का पर्वत भी उस पर आ गिरे, तो भी वह तनिक विचलित नहीं होता। इष्ट वस्तु की ही भांति अनिष्ट वस्तु भी वह बहुत आदर पूर्वक स्वीकृत करता है। वह मान और अपमान सब सहन करता है, सुख और दुःख सबको समान समझता है और निन्दा अथवा स्तुति से चल-विचल नहीं होता है।
वह न तो गर्मी से तप्त होता है और न सर्दी से कांपता है, और चाहे कैसा भी विकट संकट क्यों न आवे, परन्तु न तो वह भागता ही है और न डरता ही है। उसे कभी किसी बात के संबंध में इस प्रकार का आगा-पीछा नहीं होता कि मैं यह बात कहूं या न कहूं, और व अपना वास्तविक अनुभव बिल्कुल ठीक-ठाक प्रकट कर देता है।
तात्पर्य यह कि जिस पुरुष में ये सब लक्षण खूब अच्छी तरह दिखाई देते हों, हे वीर श्रेष्ठ अर्जुन ! उसके संबंध में तुम यह अच्छी तरह समझ लो कि वह आर्जव गुण का पुतला है और उसमें ज्ञान अपना घर बना कर रहता है।
जिसे योगाभ्यास की बहुत अधिक लालसा रहती है, जो निर्जन और एकान्त स्थान की ओर दौड़ता हुआ जाता है और मनुष्यों के समाज का जिसे नाम भी अच्छा नहीं लगता, जो दैहिक विषयों के भोग-विलास को उतना ही बुरा और त्याज्य समझता है, जितना वाणों की शय्या पर सोना अथवा पीव के कीचड़ में लोटना, जो स्वर्ग के सुखों का वर्णन सुनकर उन सुखों को कुत्तों के सड़े हुए मांस के समान समझता है, उसका यह वैराग्य ही उसके लिए आत्म लाभ का वैभव होता है। वह अपने आप से कहता है कि आज मेरे जिस शरीर से पुष्टि दिखाई देती है, वह शीघ्र ही सूखी हुई कचरी के समान हो जायेगा, अभागे पुरुष के व्यवहार की तरह कभी न कभी ये हाथ-पैर थककर व्यर्थ हो जायेंगे और इस बल की अवस्था ऐसे राजा के समान हो जायेंगी, जिसे परामर्श देने वाला कोई मंत्री नहीं होगा।
जिस मस्तक को आज-कल फूलों का इतना शौक है, वही यह मस्तक शीघ्र ही ऊँट के घुटने के समान हो जायेगा। आज तो मेरे ये नेत्र कमल की पंखुड़ियों के साथ स्पर्धा कर रहे हैं, परन्तु शीघ्र ही ये पके हुए चिचड़े के समान निस्तेज हो जायेंगे। ये भौहों के परदे पुरानी छाल के समान लटकने लगेंगे और यह वक्षस्थल नेत्रों के जल से भींगकर सड़ने लगेगा।
जिस प्रकार बबूल के पेड़ पर आने-जाने वाले गिरगिट गोंद से लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार मेरा यह मुख भी थूक से लिथड़ा रहेगा। जिस प्रकार रसोई घर के सामने के गड्ढ़े गन्दे और राख के पानी से भरे रहते हैं, उसी प्रकार यह नाक कफ से भरी रहेगी। जिस मुख के होठों को मैं रंगता हूँ, हंसते समय जिसमें के दांत दिखलाता हूँ और जिससे मैं सुन्दर-सुन्दर बातें कहता हूँ, उसी मुख से कल को लार का प्रवाह बहने लगेगा और सब दाँतों के साथ दाढ़े भी गिर जायेंगे। जिस प्रकार ऋण के मार से दबे हुए खेतिहर अथवा बरसात की झड़ी के कारण पशु चुपचाप दबे हुए पड़े रहते हैं और किसी प्रकार उठना जानते ही नहीं, उसी प्रकार लाख प्रयत्न करने पर भी यह जीभ किसी तरह हिल या उठ न सकेगी। वाचा कुछ बोल न सकेगी, कान बहरे हो जायेंगे और सारा शरीर एक बहुत बड़े बन्दर के समान दिखाई देने लगेगा। जिस प्रकार घास-फूस का बनाया हुआ और खेत में खड़ा किया हुआ पुतला हवा के झोंको से बराबर आगे और पीछे तरफ हिलता या झूलता रहता है, उसी प्रकार मेरा यह सारा शरीर भी थर-थर कांपने लगेगा, चलने में पैर टेढ़े-तिरछे पड़ेंगे, हाथ टेढ़े और बेकाम हो जायेंगे और तब मानों सौन्दर्य का एक बढ़िया स्वांग खड़ा होकर नाचने लगेगा। मल-मूत्र के द्वारों में निरोध की शक्ति नहीं रह जायेगी और सब लोग यही मानने लगेंगे कि मैं किसी तरह मर जाऊँ जिससे उनका पीछा छूटे। सारा संसार मेरी ओर देखकर थूकने लगेगा, मृत्यु से बार-बार कहना पड़ेगा कि तू किसी तरह जल्दी से आकर मुझे उठा ले जा और मेरे सगे-संबंधी भी मुझसे उब जायेंगे। स्त्रियां मुझे भूत कहेंगी और लड़के बच्चे मुझे देखकर घबरा और डर जायेंगे और मैं सबसे घृणा का पात्र बन जाऊँगा। कफ की प्रबलता के कारण मैं खों-खों करके खासूंगा, तब अड़ोसी-पड़ोसियों की नींद टूट जायेंगी और वह कहने लगेंगे कि यह बुड्ढ़ा अभी न जाने और कितने लोगों को सतायेगा।
इस प्रकार जो युवावस्था में ही अपनी भावी वृद्धावस्था के लक्षणों का ध्यान रखता है और तब उन सब लक्षणों से घृणा करने लगता है, वही ज्ञानी है। वह अपने मन में कहता है कि अन्त में शरीर की इसी प्रकार की दुर्दशापूर्ण अवस्था होगी और शारीरिक भोगों को भोग चुकने के उपरांत इस शरीर का अन्त हो जायेगा, तब अपने कल्याण का साधन करने के लिए मेरे पास बच ही क्या जायेगा ? इसलिए जब तक बहरापन न आवे, उससे पहले ही सब कुछ सुन लेना चाहिये और जब तक शरीर में पंगुता न आवे, तब तक सब जगह की यात्रा आदि कर लेनी चाहिये, जब तक नेत्रों में दृष्टि है, तब तक जो कुछ देखते बने, वह देख लेना चाहिये और जब तक वाचा मुक न हो जाय तबतक मधुर भाषण कर लेना चाहिये। जब वृद्धावस्था आवेगी, तब यह सारा शरीर व्यर्थ हो जायेगा।
इसलिए आज से ही इस शरीर से बिल्कुल निर्लिप्त होकर रहना आरंभ कर देना ही उचित है।
जो यह जानता है कि आगे नाकेबन्दी या रक्षा का प्रबंध नहीं है अथवा यह देखता है कि आकाश में मेघ घिर रहे हैं, लेकिन फिर भी जो इन सब बातों की ओर ध्यान न देकर घर से बाहर निकल पड़ता है, उसका अवश्य ही घात होगा। इसी प्रकार जब वृद्धावस्था आवेगी, तब यह शरीर धारण करना बिल्कुल व्यर्थ हो जायेगा। ऐसी अवस्था में यदि मनुष्य की आयु सौ वर्ष की भी हो तो यह समझ में नहीं आता कि उसके इतने दीर्घजीवी होने में क्या लाभ है। जिन तिलों के डंठलों में से एक बार झाड़े जाने के कारण तिल निकल जाते हैं, वे डंठल यदि फिर झाड़े जायें तो उनमें से तिल नहीं निकलते हैं। अग्नि भले ही हो, परन्तु वह राख को नहीं जला सकती।
इसलिए जब एक बार वृद्धावस्था आ जाती है, तब उस मनुष्य के हाथ से भी कुछ भी नहीं हो सकता, जिसकी आयु सौ वर्ष होती है।
इसलिए जो मनुष्य सदा यह स्मरण रखता है कि वृद्धावस्था आने वाली है और यौवन-काल में ही इस बात का प्रयत्न करता है कि मैं उस वृद्धावस्था के हाथों में न पड़ने जाऊँ, उसी पुरुष के संबंध में यह समझना चाहिए कि इसमें सच्चा ज्ञान है।
इसलिए जब तक नाना प्रकार के रोग आकर सामने खड़े नहीं हो जाते, तब तक वह अपने इस निरोग शरीर का पूरा-पूरा उपयोग कर लेता है।
हे अर्जुन ! जो अपने इस शरीर की ओर से उसी प्रकार उदासीन रहता है, जिस प्रकार यात्री उस धर्मशाला से उदासीन रहता है, जिसमें वह जाकर एक-दो दिन के लिए निवास करता है। और मार्ग में चलते समय वृक्ष की छाया के साथ मनुष्य का जितना ममत्व होता है, उतना ममत्व भी जिसे इस घर अथवा शरीर के संबंध में नहीं होता, जिसे स्त्री का उसी प्रकार लोभ नहीं होता, जिस प्रकार किसी को सदा अपने साथ रहने वाली छाया का लोभ नहीं होता, जो अपने आगे बाल-बच्चों के रहते हुए भी उनके संबंध में सदा यही समझता है कि ये मार्ग में चलने वाले यात्रियों की तरह कुछ समय के लिए मेरे पास आ ठहरे हैं। मेरे संबंध में जिस मनुष्य ने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मुझसे (अर्थात् कृष्ण से) बढ़कर संसार में और कोई नहीं है, जिसका शरीर, वाणी और मन इस दृढ़ निश्चय का सत्व पान कर चुके होते हैं और जो मेरे सिवा किसी दूसरे की ओर नहीं देखता, अन्तःकरण निरन्तर मेरे समीप रहने के कारण जो मेरे साथ ही शय्या पर सोता है, जो मेरे पास उसी प्रकार खुले मन से आता है, जिस प्रकार कोई धर्मपत्नी अपने पति के पास खुले मन और बेधड़क होकर जाती है, जो मेरे स्वरूप के साथ ठीक उसी प्रकार समरस हो जाता है, जिस प्रकार गंगाजल जाकर समुद्र में मिल जाता है।
जिस पुरुष को तीर्थों, पवित्र नदियों के किनारों, शुद्ध तपोवनों, जंगल की गुफाओं और इसी प्रकार दूसरे एकान्त स्थानों में रहने का शौक होता है, जो पर्वत मालाओं की गुफाओं या सरोवरों के पास प्रदेशों का बहुत आदर पूर्वक सेवन करता है और जो नगरों में कभी नहीं आता, जिसे एकान्त-वास बहुत अच्छा लगता है और मनुष्यों की बस्ती से जो सदा दूर रहना चाहता है, उस पुरुष को मनुष्य देहधारी ज्ञान ही समझना चाहिये। जिस ज्ञान की सहायता से परमात्मा अर्थात् वह एकमेवाद्वितीय वस्तु दिखाई देती है, केवल वही ज्ञान सच्चा है। इसके सिवा संसार और स्वर्ग आदि के संबंध में जो ज्ञान है, उन सबको जो अपने मन में निश्चयपूर्वक वास्तव में अज्ञान समझ लेता है, जो स्वर्ग संबंधी ज्ञान को तिलांजलि दे देता है। जो सांसारिक विषयों की बातों को कभी अपने कानों तक पहुँचने ही नहीं देता और केवल निर्मल भावना से अध्यात्म ज्ञान में निमग्न रहता है, जो और सब ज्ञानां को एक ओर रखकर अपनी बुद्धि को ठीक उसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान के मार्ग में आगे की ओर बढ़ाता है, जिस प्रकार कोई यात्री मार्ग भूल जाने पर टेढ़ी-तिरछी गलियाँ छोड़कर राजमार्ग पर चलना आरंभ करता है। जो अपने मन में कहता है - यह एकमात्र सत्य है और दूसरे समस्त विषयों का ज्ञान कोरा भ्रम है। और यही समझकर जो दृढ़ निश्चय पूर्वक अपने मन में मेरू पर्वत के समान स्थिर रहता है, इस प्रकार आकाश के ध्रुव नक्षत्र के समान जिसका निश्चय अध्यात्म ज्ञान के द्वार पर अचल रूप से स्थिर रहता है उसी में ज्ञान का निवास होता है। इस वचन में कभी कोई बाधा नहीं आ सकती, क्योंकि जब किसी का मन ज्ञान में स्थिर हो जाय, तभी यह समझना चाहिये कि वह ज्ञान स्वरूप हो गया है। भोजन पर बैठने के कुछ देर बाद जो कुछ होता है (अर्थात् भोजन का जो स्वाद और आनंद आता है।), उसका पता भोजन पर बैठने के समय तुरन्त ही नहीं लग जाता। परन्तु फिर भी पुरुष की मति ज्ञान में स्थित होते ही उसकी जो स्थिति होती है, वह प्रायः पूर्ण ज्ञानवान स्थिति के समान ही होती है। इसके सिवा शुद्ध तत्त्व-ज्ञान को जो एकमात्र फल ज्ञेय वस्तु है, वह उसे सहज में दिखाई देने लगती है। और नहीं तो ज्ञान का बोध हो जाने पर भी यदि मन को ज्ञेय वस्तु न दिखाई दे, तो यह नहीं माना जा सकता कि ज्ञान का लाभ हुआ। यदि अंधा अपने हाथ में दीपक ले तो उसके लिए उनका क्या उपयोग हो सकता है ? इसी प्रकार यदि ज्ञेय वस्तु न दिखाई पड़े तो फिर यही समझना चाहिये कि सारा ज्ञान निश्चय व्यर्थ ही गया। यदि ज्ञान के प्रकाश से परमात्मतत्त्व न दिखाई पड़े, तो वह ज्ञान स्फूर्ति ही बिल्कुल अन्धी ठहरती है।
इसीलिए बुद्धि में इतनी निर्मलता आनी चाहिए कि ज्ञान जो वस्तुएं दिखावे सब परमात्म वस्तु के स्वरूप में ही दिखलाई पड़े। इसलिए जिसे इस प्रकार की निर्मल स्फूर्ति हो जाती है, उसे निर्दोष ज्ञान का दिखलाया हुआ पर-तत्त्व दिखाई देने लगता है। जिसे इतना विशद ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह उसकी सहायता से परमात्मतत्त्व को देख सके, उसकी बुद्धि भी उतनी ही विशद होती है। और ऐसे व्यक्ति के संबंध में फिर स्पष्ट शब्दों में यह कहने की विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती कि वह पुरुष ज्ञान-स्वरूप हो जाता है। वास्तव में ज्ञान तेज के साथ जिसकी बुद्धि ज्ञेय वस्तु तक जा पहुँचती है, वह मानों आत्म-तत्त्व को प्रत्यक्ष हाथ में ही स्पर्श कर लेता है। ऐसी अवस्था में, हे अर्जुन ! यदि ऐसे पुरुष को प्रत्यक्ष ज्ञान ही कहा जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ! सूर्य तो सूर्य ही ठहरा। भला उसके स्पष्टीकरण की भी कोई आवश्यकता होती है ? इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान के अठारह लक्षण बताये।
श्री कृष्ण ने कहा - मेरा मत है कि इन्हीं लक्ष्णों से ज्ञान की पहचान करनी चाहिए। और समस्त ज्ञानियों का भी यही मत है।
जिस प्रकार हथेली पर रखा हुआ आँवला स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, उसी प्रकार मैंने तुम्हें यह बतला दिया है कि ज्ञान को किस प्रकार स्पष्ट रूप से देखना और पहचानना चाहिए।
About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’ and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.
In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.
Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.
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