प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप
गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा - हे अर्जुन ! जो केवल महत्व या प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ही जीता है, जो केवल मान की ही प्रतीक्षा करता रहता है और आदर सत्कार होने से ही जिसको संतोष होता है, जो पर्वत के शिखर की भांति सदा उपर ही रहना चाहता है और अपने उच्च पद से कभी नीचे नहीं उतरना चाहता, उसके संबंध में समझ लेना चाहिए कि उसमें अज्ञान की ही समृद्धि है।
हे अर्जुन ! जिसे अपने जीवन के अच्छे दिनों में मृत्यु का स्मरण नहीं होता, जो अपने मन में सदा यही विश्वास रखता है कि मैं इस समय जैसी अच्छी अवस्था में हूँ, वैसी ही अवस्था में सदा बना रहूँगा और इसी विश्वास के कारण जिसकी समझ में यह नहीं आता कि मृत्यु भी कोई चीज है। हे अर्जुन ! जिसकी अवस्था किसी छोटे से गड्ढ़े में रहने वाली उस मछली के समान होती है, जो यह समझती है कि यह गड्ढ़ा कभी सूखेगा ही नहीं और यही सोचकर जो किसी गहरे दहमें नहीं जाती अथवा जिसकी अवस्था उस हिरण के समान होती है, जो शिकारी के गीत में ही इतना मग्न हो जाता हे कि उस शिकारी को देखना ही भूल जाता है अथवा उस मछली के समान होती है जो वंशी में का काँटा नहीं देखती और उसपर का आमिस खाने का प्रयत्न करती है अथवा जिसकी अवस्था उस पतंगे के समान होती है जो दीपक की लौ देखते ही इतना भूल जाता है कि उसे इस बात का ध्यान ही नहीं रह जाता कि यह दीपक मुझे जला डालेगा, वही अज्ञानी है।
जिस प्रकार सामने खड़े की हुई सूली की ओर दौड़ने वाले के लिए प्रत्येक पग पर मृत्यु पास आती जाती है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों उसका शरीर बढ़ता है, ज्यो-ज्यों दिन बीतते जाते हैं और ज्यों-ज्यों विषय भोग की सुविधा होती जाती है, त्यों-त्यों आयुष्य पर मृत्यु की छाया बराबर बढ़ती जाती है। जिस प्रकार पानी में नमक घुल जाता है, उसी प्रकार यह जीवन भी घुलता चला जाता है और मृत्यु समीप आ जाती है। पर फिर भी यह प्रत्यक्ष बात उसकी समझ में नहीं आती।
हे अर्जुन ! सारांश यह है कि जिसे विषयों के फेरे में सदा शरीर के साथ लगी रहने वाली मृत्यु नहीं दिखाई देती, उसके विषय में इसके सिवा और कोई मत हो ही नहीं सकता कि वह पुरुष अज्ञान के राज्य का अधिपति है।
जो किसी अशक्त अथवा कुबड़े को देखकर अभिमान पूर्वक उसे चिढ़ाने और उसकी नकल उतारने लगता है, परन्तु जो यह नहीं समझता कि आगे चलकर मेरी भी यही अवस्था होनेवाली है और मृत्यु को सूचना देनेवाले वृद्धावस्था के लक्षण शरीर में दिखाई पड़ने पर भी जिसका यौवन काल का भ्रम दूर नहीं होता, उस पुरुष को अज्ञान का जन्म स्थल ही समझना चाहिए।
जो अपनी घर गृहस्थी को उसी प्रकार खूब जोड़ों से पकड़कर बैठा रहता है, जिस प्रकार सांप किसी बंजर या खाली जमीन पर बैठा रहता है, जिस प्रकार कोई स्त्री अपने प्राणनाथ को अपनी सारी शक्ति से अलिंगन करके बैठी रहती है। जो घर-गृहस्थी की रक्षा के लिए निरन्तर इसी प्रकार परिश्रम करता है, जिस प्रकार मधु प्राप्त करने के उद्देश्य से भृंग सदा परिश्रम करता रहता है, जिसका घर-गृहस्थी पर उतना ही अनुराग होता है, जितना उन माता-पिता का अपने उस एकलौते पुत्र-रत्न पर होता है जो उन्हें दैवयोग से वृद्धावस्था में प्राप्त होता है और जो अपनी स्त्री के सिवा और किसी को कुछ जानता या समझता ही नहीं, जो केवल स्त्री के ही शरीर का भजन और उपासना करता है और इस बात का जिसे तनिक भी ज्ञान नहीं होता है कि मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए। जो अपनी समस्त इन्द्रियों से उसी प्रकार स्त्री में एकाग्र भाव से अपना अनुराग रखता है, जिस प्रकार महाज्ञानी पुरुष का चित्त केवल ब्रह्म में ही रमण करता है और उस ब्रह्म के सामने उसके समस्त व्यवहारों का लोप हो जाता है। जो स्त्री संबंधी अनुराग के सामने लज्जा अथवा हानि को कोई चीज ही नहीं समझता और न लोकापवाद ही सुनता है। जो सदा स्त्री की ही इच्छा की अराधना करता है (अर्थात् स्त्री की ही इच्छा के अनुसार चलता है) और उसके फेरे में पड़कर उसी प्रकार नाचता है, जिस प्रकार मदारी का बंदर नाचता है। जो दान-पुण्य में उसी प्रकार कंजूसी करता है, जिस प्रकार कोई बड़ा भारी लोभी स्वयं कष्ट उठाकर अपने इष्ट मित्रों को भी दुःखी करके कौड़ी-कौड़ी जमा करता है, जो अपने रिश्ते-नाते के लोगों को तो धोखा देता है और उनके आदर सत्कार में त्रुटी करता है, परन्तु अपनी स्त्री की सभी इच्छाएँ पूरा करता है, जो उसमें रत्तीभर भी कमी नहीं होने देता। जो बहुत ही थोड़े से व्यय में अराध्य देवताओं को संतुष्ट करना चाहता है, गुरुजनों को यूँ ही चकमा देता है और अपने माता-पिता के सामने भी व्यय करने में अपनी असमर्थता प्रकट करता है। परन्तु अपनी स्त्री के उपभोग के लिए वह जो उत्कृष्ट वस्तु देखता है, उसे बहुत अधिक व्यय करके भी प्राप्त करता है, जो अपनी स्त्री को उसी प्रकार उपासना करता है, जिस प्रकार कोई प्रेमपूर्ण भक्त अपने कुल देवता की उपासना और भजना करता है। जो असल और बढ़िया चीज अपनी स्त्री के लिए रख छोड़ता है और दूसरों को सामान्य निर्वाह के योग्य भी कोई वस्तु नहीं देता। जिस प्रकार कोई व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के पास जाने की सुविधा पाने के लिए अपने पति को संतोष कराके और उसका मन भरकर उसे झूठा विश्वास दिलाने के लिए ऊपर से अपना शुद्ध व्यवहार और आचरण दिखलाती है, उसी प्रकार हे अर्जुन ! जो ऊपर से दिखलाने के लिए तो मेरी भक्ति करता है, परन्तु वास्तव में जिसकी सारी दृष्टि विषय सुखों को सम्पादित करने की ओर रहती है और जब इस प्रकार की भक्ति करने पर इच्छित विषय प्राप्त नहीं होता, तब जो यह कहकर तत्काल ही मेरी भक्ति छोड़ देता है कि यह सारी भक्ति निरर्थक है। जो उसी प्रकार नित्य नये-नये देवताओं की अराधना करता है, जिस प्रकार कोई कृषक नित्य नई-नई जमीनें लेकर जोतता है और अपने प्रत्येक नए देवता की अपने पुराने देवता की ही तरह सेवा करता है, जो किसी नए गुरु सम्प्रदाय का विशेष ठाट-बाट देखकर उसी के फेरे में पड़ जाता है और उसी का मंत्र लेता है और दूसरों को क्षुद्र समझकर उनका स्वीकार नहीं करता। जो सजीव प्राणियों के साथ निर्दयता पूर्ण व्यवहार करता है, परन्तु वृक्ष और पाषाण आदि स्थावर पदार्थों को देवता समझकर उनकी पूजा करता है और इस प्रकार जिसकी एक निष्ठ श्रद्धा किसी पर नहीं होती। जो मेरी मूर्ति को प्रस्तुत करता है, परन्तु उस मूर्ति को अपने मकान के किसी कोने में स्थापित करके स्वयं दूसरे देवताओं के दर्शन और यात्रा के लिए निकल जाता है। जो सदा मेरा पूजन करता है, परन्तु मंगल कार्यों में कुल देवताओं की अर्चना करता है और कुछ विशेष पर्वों के समय दूसरे देवताओं की अराधना करता है। जो घर में तो मेरी मूर्ति स्थापित करता है, परन्तु मन्नतें दूसरे देवताओं की मानता है और फिर श्राद्ध के समय अपने पितरों का भक्त हो जाता है। जो एकादशी के दिन मेरा जितना मान करता है, उतना ही श्रावण शुक्ल पंचमी के लिए नागों का भी मान करता है। जो भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी के दिन गणपति का भक्त हो जाता है और चतुर्दशी आने पर दुर्गा की भक्ति करने लगता है। जो नवमी का आयोजन करके नवचण्डी का अनुष्ठान करने बैठ जाता है और रविवार को कालभैरव का खिचड़ी बाँटने लगता है और फिर सोमवार आने पर बेल-पत्र लेकर शिवलिंग की ओर दौड़ पड़ता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार जो पुरुष नाना प्रकार के और सभी देवताओं की अराधना और उपासना करता है और इस प्रकार धांधली से जो निरन्तर भक्ति करता है और क्षण भर भी शान्त नहीं रहता और बराबर सभी देवताओं की ओर दौड़ता हुआ दिखाई देता है, उसके सम्बन्ध में तुम निश्चित रूप से यह समझ लो कि वह भक्त मूर्तिमान अज्ञान ही है।
निर्जन और स्वच्छ तपोवन, तीर्थ और नदी तट को देखकर जिसके मन में घृणा या अरुचि उत्पन्न होती है, वह भी मूर्तिमान अज्ञान ही है।
जिन मनुष्यों को भीड़-भाड़ में ही रहना अच्छा लगता है, जो सांसारिक झगड़ों में ही भूला रहता है और जो लौकिक विषयों के संबंध में अनुराग पूर्वक बातें करता है, वह भी मूर्तिमान अज्ञान ही है। जिस विद्या के द्वारा आत्म-दर्शन की प्राप्ति होती है, उस विद्या की चर्चा होने पर जिस विद्वान में उसका उपहास करने की बुद्धि होती है, जो उपनिषदों की ओर कभी भूलकर भी नहीं देखता, योग-शास्त्र जिसे अच्छा नहीं लगता और अध्यात्म ज्ञान की ओर जिसके मन की प्रवृति नहीं होती, जिसमें आत्म चर्चा संबंधी श्रद्धा का नितान्त अभाव होता है और जो यह समझता है कि यह विषय विचार करने के योग्य ही नहीं है और जिसका मन रस्सा तुड़ाकर भागने वाले पशु की तरह मुक्त और स्वेच्छाचारी रहता है, जो कर्म-कांड में निपुण होता है, जिसे सब पुराण कंठस्थ होते हैं, और जो ज्योतिष में भी पारंगत होता है, पाक-विद्या में निपुण होता है और अथर्व वेद के अघोरी मन्त्र तन्त्रों में कुशल होता है, जिसके लिए कामशास्त्र की और कोई बात सीखने के लिए बाकी नहीं होती, जिसे महाभारत की सभी बातें याद होती है और मूर्तिमान वेद ही जिसके हाथ में आ जाते हैं, जिसे नीति-शास्त्र का ज्ञान होता है, वैद्यक का ज्ञान होता है और काव्यों तथा नाटकों के ज्ञान में जिसके मुकाबले का और कोई नहीं होता, जो स्मृतियों की चर्चा करता है, गारूड़ी विद्या का मर्म जानता है और शब्दकोष को जिसने अपनी बुद्धि का मानो दास ही बना रखा है, व्याकरण शास्त्र में जिसका ज्ञान असाधारण है, तात्पर्य यह कि जो सभी विषयों का बहुत अच्छा ज्ञाता है, परन्तु फिर भी एकमात्र अध्यात्मा विद्या में सचमुच जन्मान्ध है, जो अध्यात्म शास्त्र को छोड़कर बाकी सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का प्रतिपादन कर सकता है, उसके इस प्रकार के ज्ञान में आग लग जाय। ऐसे ज्ञान के किसी को उसी लड़के के समान दर्शन तक न होने चाहिए जो माता-पिता का घात करने वाले मूल नक्षत्र में जन्म लेता है। मोर के सारे शरीर में पंख होते हैं और उन पंखों पर नेत्र भी होते हैं। परन्तु जिस प्रकार उन सभी नेत्रों में दृष्टि का अभाव होता है, उसी प्रकार इस ज्ञान में भी वास्तविक दृष्टि का अभाव होता है।
यदि संजीवनी बेल की जरा सी जड़ भी हाथ लग जाय तो दूसरी औषधियों तथा वनस्पतियों की गाड़ियाँ लादने की क्या आवश्यकता है ? यदि सौन्दर्य के बत्तीसों लक्षण हों, परन्तु एकमात्र आयुष्य न हो अथवा यदि बहुत से आभूषण आदि तो हों, परन्तु मस्तक ही न हो अथवा बहुत से बाजे बजाने वाले और बधाइयाँ देनेवाले तो हों, परन्तु वर और वधु ही न हों तो उन सबका भला क्या उपयोग हो सकता है ? इसी प्रकार एक अध्यात्म-शास्त्र के बिना दूसरे समस्त शास्त्र अपनी अपूर्णता के कारण केवल निष्फल और भ्रामक होते हैं। इसलिए, हे अर्जुन ! जिस पढ़े-लिखे मूर्ख को अध्यात्म-ज्ञान का बोध न हो, उसके शरीर को अज्ञान का मंदिर ही समझना चाहिए। उसके समस्त ज्ञान एक मात्र अज्ञान रूपी वल्ली के ही फल होते हैं। उसके प्रत्येक वचन को अज्ञान का पुष्प ही समझना चाहिए और जो पुण्य-फल उसे प्राप्त होते हैं, वे भी अज्ञान ही होते हैं। जिसके मन में अध्यात्म शास्त्र के संबंध में आदर नहीं होता, उसके संबंध में यह बतलाने की आवश्यकता ही नहीं है कि उसे ज्ञान-वस्तु कभी दिखाई ही नहीं देती। जो नदी के इस पार वाले तट पर भी न आता हो और पीछे की ओर लौटकर भाग जाता हो, भला उसे उस पार की बातों का कैसे ज्ञान हो सकता है ? इसी प्रकार, हे अर्जुन, जिसका अध्यात्म ज्ञान के साथ कुछ भी परिचय न हो, उसके लिए सत्य ज्ञान प्राप्त होने की जगह ही कहाँ रह जाती है ?
About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’ and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.
In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.
Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.
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