प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप
इस संसार में दो विद्याएँ हैं, जो जानने योग्य हैं - पहली ‘परा’ और दूसरी ‘अपरा’। इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद (चारो वेद) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष ये तो ‘अपरा विद्या’ है तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वह ‘परा विद्या’ है। ईशावास्य उपनिषद् में इन्हीं को ‘विद्या’ तथा ‘अविद्या’ कहा गया है। अमरत्व की प्राप्ति के लिए ‘परा विद्या’ ही है, ये अपरा (सांसारिक) विद्याएँ अमरत्व की प्राप्ति नहीं करा सकती। ये ‘अपरा विद्याएँ’ संसार में भोग प्रदान करा सकती हैं, जीवन में सुख सुविधाएँ दे सकती हैं, किन्तु इनसे जीवन में शान्ति व आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती, न ये अमृत की प्राप्ति करा सकती है। ये मृत्यु दे सकती है, अमरत्व की प्राप्ति नहीं करा सकती। ये अन्धकार में भटका सकती है, ज्ञान का प्रकाश नहीं दे सकती। इसलिए इन्हें ‘असत्् विद्या’ कहा गया है। ‘सत्’ की प्राप्ति के लिए ‘परा विद्या’ ही एकमात्र उपाय है। भारतीय ऋषि इसी ‘सत्’ की प्राप्ति की कामना करते हुए कहते हैं -
असतो मा सद् गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माऽमृतं गमय।
वह परब्रह्म परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि ‘मुझे असत्् से सत् की ओर ले चल, इस अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चल।’ यह जगत्् असत्् है, - अज्ञान स्वरूप है तथा मृत्यु स्वरूप है, जबकि वह परब्रह्म ही एकमात्र सत् है, ज्ञान स्वरूप है तथा अमृत स्वरूप है। उसी को प्राप्त करना जीव की अंतिम गति है। यह जगत्् असत्् है - इस जगत्् में द्वन्द्व है, जिसका कारण द्वैत है। यह द्वैत भी वास्तविक नहीं है, बल्कि अज्ञान के कारण ही प्रतीत होता है। इसी द्वैत के कारण ही राग, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, वैमनस्य, कलह, स्वार्थ, मोह, ममता, आसक्ति आदि अनेक अवगुण मनुष्य में पैदा होते हैं। इसी से अत्याचार, अनाचार, शोषण, हत्याएँ आदि होती हैं, जिससे यह जगत्् नरक तुल्य बन जाता है। इसी से मनुष्य शान्ति के मार्ग से भटक जाता है। यही अज्ञान मनुष्य के दुःखों का कारण बनता है। इस अज्ञान का नाश ये अपरा (सांसारिक) विद्याएँ नहीं कर सकतीं। जब तक मनुष्य को अद्वैत की अनुभूति नहीं हो जाती, तब तक वह सौ कल्पों में भी सुखी नहीं हो सकता, चाहे वह कितनी ही साधना, तपस्या, मन्त्र जाप, हवन, कीर्तन, भजन, यज्ञ क्यों न कर ले, यम-नियम आदि का पालन ही क्यों न कर ले। अद्वैत की अनुभूति कर्मों का फल नहीं है, वह ज्ञान का फल है। यह ज्ञान किसी सद्गुरु की कृपा से ही होता है। यह ज्ञान अति रहस्यमय है, जो पुस्तकों के पढ़ने मात्र से नहीं हो सकता, न वह बुद्धि से ही होता है, न प्रवचन सुनने से ही होता है। कोई सद्गुरु ही इसकी अनुभूति कराता है, तभी इसके अज्ञान का नाश होता है, जिससे वह द्वन्द्वातीत अवस्था का अनुभव करता है। यह ज्ञान किसी धर्म-ग्रन्थ के पढ़ लेने से भी नहीं आता, न किसी धर्म-गुरु के प्रवचन सुन लेने से आता है। मुण्डक उपनिषद् (3।2।3) इसे स्पष्ट किया गया है कि -
नाययात्मा प्रवचनेन लभ्यो,
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।
‘यह आत्मा न तो प्रवचन से, ना बुद्धि से, ना बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह आत्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।’ यह आत्मा ही एकमात्र ज्ञान स्वरूप है, जिसकी अनुभूति किसी सद्गुरु की कृपा से ही होती है, अन्य किसी विधि से नहीं। यही वह परमतत्त्व है, जिसके जानने से सबकुछ जाना हुआ हो जाता है। वही जानने योग्य है। इसके जान लेने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय मिट जाते हैं तथा सभी कर्मों का नाश हो जाता है। ऐसा उपनिषद में कहा गया है।
सत् विद्या - इस सम्पूर्ण दृश्य एवं अदृश्य जगत्् का एक ही मूल तत्त्व है, जो इसका कारण है। अन्य सभी उसी के विभिन्न रूप मात्र हैं, जो परिवर्तनशील है, ये असत्् है। वह मूल तत्त्व ही एकमात्र ‘सत्’ स्वरूप है, जिसे वेदान्त ने ‘ब्रह्म’ कहा है। वही ज्योतिषां ज्योति है, वही अमृत है। वही नित्य एवं शाश्वत है, जो सदा से है व सदा रहने वाला है। वह न घटता है, न बढ़ता है, न उसका रूप परिवर्तन ही होता है। वह सदा अपने ही रूप में रहता है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी का विस्तार है। इस सत्-तत्त्व को जान लेना ही ‘ज्ञान’ है, जिसे ‘विद्या’ कहा गया है। यह विद्या ही ज्ञान की हेतु है जो उस परमतत्त्व का बोध कराती है तथा अविधा भ्रान्ति उत्पन्न करती है जो अन्धकारवत् है। यही मनुष्य को भटकाती है। विद्या अमरत्व प्राप्त कराती है तथा अविद्या मृत्यु का कारण बनती है।
इसलिए विद्या वही है जो मनुष्य को मुक्ति दिला सके।
‘सा विद्या या विमुक्तये।’
इस विद्या से जो विहीन है, वह पशु ही है।
‘विद्या विहीनः पशु।’
यह विद्या किसी सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है, जो शिष्य को उस परमतत्त्व का बोध कराता है।
‘गुरु कृपा ही केवलं।’
धर्म मनुष्य की जीव चेतना के विकास की प्रक्रिया है, जो जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ती है। यह संसार और ईश्वर के मध्य का सेतु है, जिसे पार कर ईश्वरत्त्व तक पहुँचा जा सकता है। धर्म के माध्यम से ही मनुष्य को मानवेत्तर जीवन मिलता है, जो केवल मनुष्य की ही विशेषता है, वह पशुओं में नहीं होता। धर्म ही मनुष्य और पशु में भेद करता है। धर्म से हीन मनुष्य को पशु तुल्य ही माना गया है। ‘धर्मेण हीना पशुभिः समाना।’ मनुष्य पशुआें से थोड़ा ऊपर उठ गया है, किन्तु उसमें पूर्णता आना अभी शेष है, जो ईश्वर प्राप्ति के बाद ही आ सकती है, जिसका आरम्भ धर्म साधना से ही करना पड़ेगा। ईश्वर से जुड़े बिना उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो सकता तथा वह अज्ञान के अन्धकार में ही भटकता रहकर जीवन को व्यर्थ ही गवाँ देता है। उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता। खाली ही आता है और खाली ही चला जाता है। धर्म भी साधन मात्र है, किन्तु बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसीलिए अध्यात्मिक प्रगति में धर्म की अनिवार्यता स्वीकार की गई है। दुनिया में धर्म-शास्त्र तो कई हैं तथा विभिन्न व्यक्तियों ने अपने-अपने धर्म-शास्त्र बना लिए हैं, जो किसी वर्ग विशेष की मानसिकता को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं, जिससे सभी धर्म-शास्त्रों में एकरूपता नहीं है। मुसलमानों के, ईसाइयों के, यहूदियों के, हिन्दुओं के, बौद्धों के, जैनों के, सिखों के भिन्न-भिन्न धर्म-शास्त्र हैं तथा वे उसी को मानते हैं व अन्य को मान्यता नहीं देते, जिससे विद्वेष ही पनपा है। यह सभी धर्म-शास्त्र मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने की ही शिक्षा देते हैं, जिससे मनुष्य इस संसार में शान्ति व नैतिकता से जी सके, किन्तु ये सभी धर्म-शास्त्र उस परमतत्त्व ‘ईश्वर’ की अनुभूति नहीं करा सकते। इन धर्म-शास्त्रों में भी कई असद् शास्त्र हैं जो मनुष्य - मनुष्य में भेद पैदा करते हैं, वर्ग - वर्ग में भेद पैदा करते हैं, जाति - जाति में भेद पैदा करते हैं, आत्मा - आत्मा में भेद पैदा करते हैं। ये संसार को दुःख रूप मानकर उससे भागने की बात कहते हैं। ये ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, वैमनस्य पैदा करते हैं। वे अपने ही हितों व स्वार्थों की बातें करते हैं, परहित की बात वे नहीं सोंच सकते। वे संघर्ष की बातें कहते हैं, सहयोग की नहीं। ये दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। ऐसे ग्रन्थों को ‘असद् ग्रन्थ’ ही कहना चाहिए, जिनके रहते मानवता सुरक्षित नहीं रह सकती। ऐसे ग्रन्थों का प्रचार कर कई धर्म-गुरु समाज को पथ-भ्रष्ट ही करते हैं। इनसे मनुष्य की आत्म-चेतना का कभी विकास नहीं हो सकता। इसलिए इनका त्याग कर सद् शास्त्रों का ही अध्ययन करना चाहिए। ये सद्शास्त्र जीवन को सुखमय बनाने के लिए ही रचे गये हैं, जिनका मूल आधार परहित कामना है। तुलसीदास जी ने कहा है -
‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।’
वेद व्यास जी ने अठारह पुराण लिखकर अन्त में कहा -
‘अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचन द्वयं।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीड़नम्।।’
उपनिषद वाक्य हैं -
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।।’
सर्व मंगल की कामना ही धर्म का सार है। ये सभी धर्म - शास्त्र ईश्वर प्राप्ति के लिए मार्ग दर्शक तो हैं, किन्तु वे पहुँचाते नहीं हैं। ये धर्म के अनुसार चलने व अधर्म को त्यागने की बात कहते हैं। ये मनुष्य को नेकी की राह पर चलने की शिक्षा तो देते हैं, किन्तु यह उच्च-ज्ञान के लिए, ईश्वर प्राप्ति के लिए प्राथमिक कक्षा मात्र है, जिससे व्यक्ति को उच्च ज्ञान के लिए तैयार किया जाता है। उच्च स्तर पर जाने के लिए उसे किसी ज्ञानी सद्गुरु की ही शरण में जाना होता है, जिससे उसे दिव्यता प्राप्त होती है। अन्यथा यह कोरा धर्म अभिशाप भी बन सकता है। धर्म का ऐसा ही रूप आज संसार में विद्यमान है, जो अभिशाप ही सिद्ध हो रहा है। धर्म की एक विशेषता है कि यह द्वैत से आरम्भ होता है। यह दो की सत्ता को स्वीकार करता है। यह सृष्टि और स्रष्टा में भेद करता है, आत्मा और ईश्वर में भेद करता है, जीव-जीव में भेद करता है, जड़ और चेतन में भेद करता है, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, ज्ञान और अज्ञान, अन्धकार और प्रकाश, विद्वान और मूर्ख, ज्ञानी और अज्ञानी, मृत्यु और जीवन में भेद करता है। वह बुरे को त्यागकर अच्छा लाना चाहता है, किन्तु अभेद की प्रतीति से अनभिज्ञ ही रहता है। सृष्टि में ऐसा कोई विभाजन नहीं है। इस भेद की प्रतीति मनुष्य के अज्ञान के कारण ही होती है, जबकि सृष्टि में सर्वत्र एकत्व है। यह भेद मात्र मन की कल्पना है। इसलिए कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। जब मनुष्य को अभेद की प्रतीति हो जाती है, तो उसी को ज्ञान की परमावस्था कहा जाता है। यही अद्वैत की अवस्था है। यह धर्म मार्ग है, गन्तव्य नहीं है। यह आरम्भ है, अन्त नहीं है, यह साधन है, साध्य नहीं है। साध्य तो ईश्वरानुभूति है, जो अद्वैत की अवस्था है, मुक्ति है, मोक्ष है, जिसे प्राप्त करना है। यदि मार्ग को ही गन्तव्य मान लिया तो उच्च की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। इस उच्च की प्राप्ति की विद्या किसी धर्म-गुरु के पास नहीं है, न किसी धर्म शास्त्र में ही है। इसे प्राप्त करने के लिए किसी ज्ञानी गुरु, किसी परम गुरु (सद्गरु) की ही शरण में जाना होगा। वही उसे तत्त्वज्ञान करा कर मंजिल तक पहुँचा सकता है, अन्य कोई भी इसमें सक्षम नहीं है। इसे निश्चित रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। दुनियां में कई गुरु हुए हैं, जिन्होंने धर्म तो दिया, मनुष्य को आचरण संबंधी नियम तो दिये, किन्तु तत्त्वज्ञान नहीं दिया। इस तत्त्वज्ञान के अभाव में ही धर्म विकृत होकर दुनिया में अभिशाप सिद्ध हो रहा है। ज्ञान प्रथम है व धर्म उसी को उपलब्ध होने की विधि है। विभिन्न धर्मों में जो मिलता है, वह मात्र उस परमतत्त्व के अज्ञान का ही परिणाम है। इसी से सभी धर्मों में एकरूपता नहीं आ सकी है। सब अपनी-अपनी ढपली अलग ही बजा रहे हैं। ज्ञान के अभाव में कोई भी क्रिया कभी भी सद्परिणाम नहीं ला सकती। दोनां का सामंजस्य ही सुफल देता है। आज दुनियां में इतने धर्म व धर्म प्रचारक हैं, किन्तु यहाँ न शान्ति है, न आनन्द। इसका कारण है ज्ञान व कर्म की भिन्नता। यह ज्ञान है - उस परमतत्त्व का ज्ञान, उसके विधि-विधान का ज्ञान, सृष्टि के मूलतत्त्व का ज्ञान जो इस सृष्टि का निर्माण, संचालन व नियमन कर रहा है। उसका ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है। उसकी अपने भीतर अनुभूति कर लेना है। इस संसार को जानना उसका विज्ञान है। जो केवल उसके विज्ञान को जानता है, वह अन्धकार में ही भटकता रहता है। उसे कभी मार्ग नहीं मिल सकता। यही इस जीव की विडम्बना है। इस ज्ञान का ज्ञाता कोई परमगुरु ही हो सकता है, कोई सद्गुरु ही होता है, जिसे स्वयं को उस परमतत्त्व ‘ईश्वर’ की अनुभूति हो चुकी है। जो स्वयं ईश्वर स्वरूप होकर गुणातीत व निर्गुण अवस्था को प्राप्त हो चुका है। अन्य कोई भी गुरु स्थान नहीं ले सकता। अन्य गुरु तो केवल मार्ग बताकर छोड़ देते हैं, किन्तु परमगुरु उस परमतत्त्व की अनुभूति भी करा देता है, उसे अपने गन्तव्य तक पहुँचा भी देता है। वह सच्चा साथी है। ऐसे परमगुरु की शरण में जाना चाहिए। जो ज्ञानार्थी हैं, जो मुमुक्षु हैं, जो ब्रह्मानुभूति के इच्छुक हैं, जिनके पूर्व जन्मों के सुसंस्कार उदित होकर अपना फल देने को तत्पर हैं, जो ईश्वर प्राप्ति के योग्य पात्र हैं, उन्हें किसी सद्गुरु की शरण में जाकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, तभी वे संसार के आवागमन से मुक्त हो सकते हैं।
About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’ and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.
In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.
Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.
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