प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप
इस सम्पूर्ण दृश्य एवं अदृश्य जगत् तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक ही मूल कारण है, जिसे ‘ब्रह्म’ कहा जाता है। यह ब्रह्म निराकार है, निर्गुण है, गुणातीत है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, जिससे यह अचिन्त्य है। इसका चिन्तन नहीं किया जा सकता। यह अव्यक्त स्वरूप है। यह स्वयं ज्ञानमय है, ज्ञान का यही एकमात्र कारण है। ब्रह्म, विष्णु, महेश इसी का सगुण रूप है, जिन्हें ‘सगुण ब्रह्म’ कहा जाता है। ईश्वर भी इसी ब्रह्म का सगुण रूप है। यह त्रिगुणात्मक मायाशक्ति इसी की शक्ति है, जो विभिन्न रूप धारण कर सृष्टि की रचना करती है। ब्रह्म इस माया शक्ति की आत्मा है, जिसके संयोग से ही यह सृष्टि की रचना करता है। माया के सत्त्वगुण से विष्णु इस सृष्टि का पालनकर्ता है, रजोगुण से ब्रह्म इस सृष्टि की रचना करता है तथा तमोगुण से शिव रूप इस सृष्टि का संहार करता है। ये तीनो क्रियाएँ इस सृष्टि में निरन्तर चलती रहती हैं, जिसका एकमात्र कारण तत्त्व वह ब्रह्म है। यही ‘एकमेवाद्वितीयं’ ‘एक ही है और अद्वितीय है’ दूसरा कोई है ही नहीं। अन्य सभी उसी के रूप मात्र हैं, उसी की विभिन्न अभिव्यक्ति हैं। यह जगदाधार है। यह अपनी ज्ञानशक्ति से सभी को आलोकित करता है। भगवान शिव भी इसी का एकरूप है, जो इसकी समस्त शक्तियों से सम्पन्न है। इसलिए वह ब्रह्म ही एकमात्र गुरु है जो ज्ञानदाता है। सभी देवगण भी उसी की वन्दना करते है, इन्हीं को नमस्कार करते है। इस गुरु का चिंतन सभी देवगण, ऋषि-महर्षि तथा स्वयं शिव भी करते हैं, जिसे जानकर सभी अज्ञानीजन मुक्तावस्था का अनुभव करते हैं।
वह ब्रह्म की परम तत्त्व है, वह ब्रह्म ही समस्त गुरुओं का गुरु है, जिसके ज्ञान से सब पापो का नाश हो जाता है। जिसके मात्र श्रवण करने से ही मनुष्य अपने सम्पूर्ण दुःखों से मुक्त हो जाता है। जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य फिर से इस संसार बन्धन में नहीं बँधता तथा इस जन्म-मरण रूपी आवागमन से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
वह परम तत्त्व ब्रह्म ही ज्ञानमय है, समस्त ज्ञानों का वही आधार व कारण है, जो अत्यन्त ही रहस्यमय है, जिसको जानना अत्यन्त ही कठिन है, जो अज्ञेय है, जिसे जाना ही नहीं जा सकता, जिसको जानने के लिए समस्त देवगण भी जिज्ञासा करते हैं, सभी ऋषि-मुनि जिसका ध्यान करते हैं, फिर भी वे इसके रहस्य को नहीं जान सके, लेकिन वही सारभूत है, जो जानने योग्य है। जिसके जानने मात्र से हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है तथा सभी संशय मिट जाते हैं। वह ब्रह्म ही समस्त गुरुओं का गुरु है। वही एकमात्र ज्ञान का आधार है। इस सृष्टि की वही एकमात्र संचालन शक्ति है, जिससे सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित होती है। उसके अज्ञान के कारण ही मनुष्य सभी प्रकार के रोग, शोक से ग्रस्त रहता है। वह ब्रह्म सभी प्राणियों पर उसी प्रकार ध्यान देता है, जैसे कोई माता अपने पुत्र पर ध्यान रखती है, वही विश्व पालक है।
भगवान शिव कहते हैं - हे पार्वती ! यह सम्पूर्ण दृश्य जगत् उस एक ही ईश्वर की माया शक्ति (प्रकृति) का ही विस्तार है, जो जड़ है। जड़ में ज्ञान का अभाव होता है। ज्ञान स्वरूप तो केवल एक ही चेतन तत्त्व है, जो स्वयं कोई निर्माण नहीं कर सकता। इसलिए यह जगत् अविद्यात्मक माया रूप ही है। यह शरीर भी इन्हीं प्रकृति तत्त्वों से निर्मित होने से यह भी इसी अज्ञान से उत्पन्न हुआ है। इसमें केवल चैतन्य आत्मा ही ज्ञान स्वरूप है। इन जड़ और चेतन ही भिन्नता एवं इनकी विभिन्न क्रियाओं का विश्लेषणात्मक ज्ञान जिनकी कृपा से होता है, उस ज्ञान को ही ‘गुरु’ कहते हैं। ऐसा ज्ञान केवल आत्मज्ञान के बाद ही होता है, जिससे मनुष्य को यह दृढ़ निश्चय होता है कि मैं प्रकृति जन्य शरीर मात्र नहीं हूँ, बल्कि शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ। शरीर जड़ प्रकृति से निर्मित है, इसलिए मैं जड़ शरीर नहीं हूँ, बल्कि चैतन्य आत्मा हूँ। ऐसा ज्ञान आत्मा के ज्ञान से ही होता है, इसलिए यह आत्मा ही एकमात्र गुरु है।
यह आत्मा ही इस शरीर में एकमात्र ज्ञान स्वरूप है तथा वही गुरु है, किन्तु उसका ज्ञान भी अपने-आप नहीं होता, क्योंकि वह अदृश्य है। मनुष्य अज्ञानवश अपने दृश्य शरीर को ही अपना स्वरूप मान बैठता है, जो एक भ्रान्ति मात्र है। इस भ्रान्ति का निराकरण कोई सद्गुरु ही कर सकता है, जिसको स्वयं को आत्मानुभूति हुई है। अन्य कोई भी इसमें समर्थ नहीं है। ऐसा गुरु कौन है जिसके पाद सेवन से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर विशुद्धात्मा होकर स्वयं ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, उसे हे पार्वती ! मैं तुम पर कृपा करके कहता हूँ। ऐसा शिवजी कहने लगे। अज्ञानवश मनुष्य इस संसार में ज्ञात एवं अज्ञात, चाहकर अथवा अनचाहे, स्वेच्छा से अथवा बाध्य होकर, स्वार्थ वश अथवा अचेतन की प्रेरणा व संस्कारों वश कई प्रकार के पाप कर्म कर बैठता है। जिनका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इनसे कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। इन पाप कर्मों एवं पुण्य कर्मों, दोनों का ही अलग-अलग फल होता है व दोनों को ही भोगना पड़ता है। ये दोनों ही जीवात्मा के लिए बन्धन स्वरूप है। इन पाप कर्मों के कीचड़ को धोने के लिए श्री गुरुदेव के चरणामृत का पान करना ही एक मात्र उपाय है। चरणामृत का पान करने का अर्थ है, सर्वभावेत उनकी शरण में जाना, उनके बताए हुए मार्ग पर चलना, उनके द्वारा दी गई आज्ञाओं का पालन करना, उनकी शिक्षा व उपदेशों पर चलना, उनकी बताई हुई साधना को उनके सान्निध्य में पूर्ण करना आदि। गुरुदेव के बताए मार्ग पर चलने से ही उस आत्मरूपी ज्ञान के तेज का सम्यक् प्रकाश होता है। जिससे सभी पापों का प्रक्षालन हो जाता है। ये पाप कर्म अज्ञान के कारण ही होते हैं, जो ज्ञान के प्रकाश में लुप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अन्धकार अपने-आप लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार इस ज्ञानाग्नि में सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने गीता (4/37) में भी कहा है - ‘यह ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात कर देता है।’ ‘पापी से पापी भी ज्ञानरूप नौका द्वारा सम्पूर्ण पाप समुद्र से तर जाता है।’
(गीता-4/36)
इस प्रकार गुरु का एक ही कार्य है, अपने शिष्य की ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करना जिससे उसके अज्ञान जनित पापों का क्षय हो जाता है। इसलिए इस संसार सागर का तारक एकमात्र गुरु ही है।
ब्रह्म इस माया शक्ति से परे है जो अव्यक्त है, अनादि है, अज्ञेय है, अनिर्वचनीय है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, उसे देखा नहीं जा सकता। किन्तु उसकी अनुभूति होती है। इस अनुभूति को कराने वाला केवल गुरु ही है, जो शिष्य को उसकी चित्त शुद्धि कराने के बाद गुरु वाक्य ‘तत्त्वमसि’ रूप में कराता है। इसे हृदयंगम कर शिष्य स्वयं अपने को ब्रह्म स्वरूप ही अनुभव करने लगता है। यही अनुभव उसकी मुक्ति का कारण बनता है, जिससे उसकी सभी प्रकार की भ्रान्तियों का निराकरण हो जाता है। वह अपने सत्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। ऐसा वचनामृत गुरुदेव के मुखारविन्द से निकलने पर ही शिष्य धन्य हो जाता है, इसलिए गुरु का वचन ही ब्रह्म स्वरूप है। ब्रह्म की यह अनुभूति केवल गुरु कृपा से ही होती है, जिसको वह योग्यपात्र समझता है, जिसने गुरु को तन, मन से सेवा की है, उसी को वह प्रसाद रूप में यह ज्ञान देता है। अन्य कोई भी इसकी अनुभूति नहीं करा सकता। इसके लिए निरन्तर गुरु का ही ध्यान करते रहना चाहिए। यही उसकी कृपा प्राप्त करने का उपयोगी साधन है। इसलिए जिस प्रकार स्वेच्छारी स्त्री अपने प्रेमी पुरुष का चिन्तन करती है, उसी प्रकार सदा गुरुदेव का ध्यान करना चाहिए। तत्त्वज्ञान एवं आत्मज्ञान के लिए केवल गुरु का ही सम्यक् आश्रय लेना चाहिए। उनके अतिरिक्त अन्य कोई भी इस कार्य को नहीं कर सकता। ज्ञानी गुरु ही ज्ञान का मार्ग दिखा सकता है। अतः उसी की शरण जाना उचित है। उसकी शरण जाने के लिए व्यक्ति को अपने आश्रम (ब्रह्मचर्य, गुहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) अपनी लोकप्रियता, पद, प्रतिष्ठा और पालन-पोषण ये सब छोड़कर गुरुदेव का ही सम्यक आश्रय लेना चाहिए। ये सब ज्ञान प्राप्ति में बाधास्वरूप ही है। गुरु की महिमा सर्वत्र कही गई है। तीनों लोकों में स्थित देवतागण, ऋषि-मुनि, पितृ एवं मनुष्य आदि सभी गुरु की महिमा को जानते हैं व उन्हीं का बखान करते रहते हैं। बिना गुरु के आज तक कोई ज्ञानी नहीं बना है, न कोई मुक्त हुआ है। नचिकेता के गुरु यमराज, जनक के गुरु अष्टावक्र, कबीर के गुरु रामानन्द, शंकराचार्य के गुरु गोविन्दपादाचार्य, मीरा के रैदास, श्री राम के गुरु वशिष्ठ, विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण, शिवाजी के रामदास, दयानन्द के विरजानन्द, ज्ञानेश्वर के निवृत्तिनाथ आदि गुरुओं ने ही अपने शिष्यों की ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित किया, जो महानता को प्राप्त हो सके। बिना गुरु के कोई भी इस उच्चता को प्राप्त नहीं हो सकता।
ये विद्याएँ दो प्रकार की हैं - परा और अपरा। अपरा विद्याएँ सांसारिक विद्याएँ हैं, जो संसार में सुखपूर्वक जीने की कला दिखाती है तथा दूसरी है परा-विद्या, जो आत्मज्ञान की हेतु है। इस विद्या को पुस्तकों से नहीं जाना जा सकता, न किसी से सीखा जा सकता है। केवल वही गुरु इसके रहस्य को बता सकते हैं, जिसने स्वयं आत्मज्ञान प्राप्त किया है। ऐसे गुरु के वचन ही मनुष्य का कल्याण करने वाले हैं। इसलिए कहा जाता है कि वह विद्या गुरु के मुख में रहती है। किन्तु ऐसी अमूल्य वस्तु वह हर किसी को बाँटता नहीं फिरता। वह किसी योग्य पात्र को उसकी कठिन परीक्षा करके ही जब वह सन्तुष्ट हो जाता है कि वह योग्य पात्र है तथा उसका दुरूपयोग नहीं करेगा, तभी वह उसकी भक्ति व सेवा से प्रसन्न होकर प्रसाद रूप में देता है। इसे किसी को भिक्षा रूप में नहीं दी जाती। भिक्षा के रूप में कोई हीरे नहीं बाँटता।
‘गु’ शब्द का अर्थ है - अन्धकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है - प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह ‘गुरु’ है, उसमें कोई संशय नहीं है।
‘गुकार’ अन्धकार है, उसको दूर करने वाला ‘रूकार’ है। अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करने के कारण ही ‘गुरु’ कहलाते हैं।
‘गुकार’ से गुणातीत कहा जाता है, ‘रूकार’ से रूपातीत कहा जाता है। गुण और रूप से परे होने के कारण ही ‘गुरु’ कहलाता है। गुरु कई प्रकार के होते है जैसे - ‘सूचक गुरु’, ‘वाचक गुरु’, ‘बोधक गुरु’, ‘निषिद्व गुरु’, ‘विहित गुरु’, ‘कारणाख्य गुरु’ तथा ‘परम गुरु’।
इसमें ‘निषिद्व गुरु’ का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में ‘परम गुरु’ ही श्रेष्ठ है। वही ‘सद्गुरु’ है। उसी की शरण में जाना चाहिए, क्योंकि सद्गुरु ही केवल आत्मज्ञान करा सकते हैं, दूसरे कोई भी गुरु नहीं।
About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’ and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.
In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.
Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.
0 टिप्पणियाँ