अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाएगी खेती किसानी

agriculture in india

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

एक बात अब साफ हो गई है कि दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था को खेती किसानी ही नई दिशा दे सकती है। कोरोना लॉकडाउन और रूस-यूक्रेन युद्ध ने दो बातें साफ कर दी हैं कि औद्योगिकीकरण के बावजूद खेती किसानी की अपनी अहमियत है। जिस तरह से कोरोना महामारी के दौरान देश-दुनिया के लोगों का बड़ा सहारा खेती किसानी ही बनी, ठीक उसी तरह भुखमरी से जूझते देशों के साथ समग्र विश्व की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार खेती किसानी रह गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि औद्योगीकरण समय की मांग है, पर पिछले कुछ दशकों से औद्योगीकरण के नाम पर खेती-किसानी की जिस तरह से उपेक्षा हुई उसका परिणाम रहा कि गांव उजड़ते गए और शहर गगनचुंबी इमारतों में तब्दील होते गए। इसके साथ ही उद्योग-धंधों की प्राथमिकता के चलते कृषि क्षेत्र पर अपेक्षित ध्यान भी नहीं दिया गया। यह तो अन्नदाता की मेहनत का परिणाम रहा है कि देश में खाद्यान्नों के भण्डार भरे हैं।

कोरोना लॉकडाउन के कारण जब सबकुछ थम-सा गया, उस समय में सबसे बड़ा सहारा खाद्यान्नों से भरे यह गोदाम ही रहे हैं। लोगों की एकमात्र आवश्यकता रसोई की सामग्री की उपलब्धता रही और इसमें सरकार पूरी तरह से सफल रही। आज अर्थशास्त्री एकबार फिर यह कहने लगे हैं कि यदि अर्थव्यवस्था को उबारना है, तो इसके लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। सरकार भी अब कृषि क्षेत्र पर खास ध्यान देने लगी है। यही कारण है कि लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जो पैकेजों का दौर चला, उसमें कृषि को खास महत्व दिया गया। कृषि क्षेत्र के प्रभाव को हमें दो तरह से समझना होगा। पहला यह कि कोरोना के चलते लॉकडाउन के हालात और रोजगार ठप होने की स्थिति में लोगों को अनाज, दाल आदि उपलब्ध कराना, ताकि कोई भी व्यक्ति भूखा ना सोए, तो दूसरी ओर किसानों के हाथ में भी पूंजी का आना, जिससे वे आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो सकें। केन्द्र हो या राज्य सरकारें सभी इस दिशा में आगे बढ़ी है। यह समय की मांग भी है तो आवश्यकता भी।

लॉकडाउन के दौरान देश के करीब 80 करोड़ लोगों तक गेहूं, चावल, दाल आदि मुफ्त उपलब्ध कराया गया। देश के कई राज्यों में आज भी गरीबों और साधनहीन लोगों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराया जा रहा है। इतनी बड़ी तादाद में राशन सामग्री का वितरण कर लोगों को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने की बड़ी पहल अन्नदाता की मेहनत का ही परिणाम है। लॉकडाउन के दुष्परिणामों से या यों कहे कि बंदिशों से कृषि क्षेत्र को बचाये रखा जा सका तो इस क्षेत्र को जल्दी राहत देकर बचाया गया। इससे फसल की कटाई से लेकर मंडियों में खरीद तक का मजबूत नेटवर्क प्रभावी रहा। इसके साथ ही प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में सीधे किसानों के खातों में पैसा गया है, इसका सीधा-सीधा लाभ किसानों को हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य सगंठन द्वारा दुनिया के देशों को बार-बार खाद्यान्न संकट की चेतावनी दी जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव आने लगा है। असामयिक वर्षा, अतिवृष्टि और अनावृष्टि आम होती जा रही है। अत्यधिक सर्दी, अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक वर्षा जहां आम होती जा रही है, वहीं समुद्री तूफानों की रफ्तार बढ़ी है। जंगलों में आग लगने लगी है। रही सही कमी रुस-यूक्रेन युद्ध ने कर दी है और इसके चलते खाद्यान्न संकट और एक देश से दूसरे देश पहुंचाने की समस्या गंभीर हो गई है। या कहें कि खाद्यान्नों का आयात-निर्यात प्रभावित हो रहा है। श्रीलंका का प्रयोग सबके सामने है, जहां जैविक खेती के निर्णय ने गंभीर संकट ला दिया और सरकार का तख्ता पलट गया। दरअसल दुनिया के देशों में खाद्य सामग्री के भावों में जिस तरह से तेजी आ रही है, वह गंभीर समस्या है।

पिछले दिनों हमारे देश में सरकार ने किसानों के लिए राहतों की घोषणाएं की हैं। इसमें एक देश - एक मण्डी, तिलहन, दलहन, आलू प्याज आदि को आवश्यक वस्तु अधिनियम के नियंत्रण से मुक्त करने और कॉन्ट्रैक्ट खेती आदि प्रमुख है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसान रेल को हरी झंडी दिखाई, तो राजस्थान सरकार ने कृषि प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राहत की घोषणाएं, सहकारी समितियों को गौण मंडी का दर्जा देकर किसानों को अपनी उपज बेचने के अधिक व स्वतंत्र अवसर जैसी सुविधाएं दी है। इससे निश्चित रुप से कृषि क्षेत्र को डोज मिलेगी, पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। खेती किसानी के महत्व को देखते हुए ही पिछले दिनों सहकारिता मंत्री अमित शाह ने पंचायत स्तर पर ग्राम सेवा सहकारी समितियों का संजाल विकसित करने पर जोर देते हुए रोडमैप दिया है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने का एकमात्र सफल मॉडल सहकारिता ही है। इसे सहकारिता मंत्री अमित शाह ने समझा है। कोरोना लॉकडाउन के दौरान जिस तरह से देश के कोने-कोने से मजदूरों-प्रवासियों ने पैदल ही सैकड़ों मील की यात्रा कर गांव की ओर पलायन किया और जिस तरह के मीडिया के माध्यम से सामने आया, उससे एक बात साफ हो जानी चाहिए कि सरकार को अब गांव आधारित और खासतौर से कृषि, सह कृषि और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की और भी खास ध्यान देना होगा। जिस तरह से खेती में आधुनिक तकनीक के प्रयोग से पशुपालन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है, उस नीति में भी अब बदलाव की आवश्यकता हो गई है। पशुपालन से किसानों की अतिरिक्त आय उनकी माली हालात को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, वहीं जैविक खेती या परंपरागत खेती को बढ़ावा देते हुए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम की जा सकती है। इस दिशा में सरकार को तेजी से आगे आना ही होगा।

हालांकि आर्थिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि खेती ही अर्थव्यवस्था को जीवन दान दे सकती है। यही कारण है कि मानसून की अच्छी बरसात के चलते खरीफ फसल से बहुत आशा लगाई जा रही है। माना जा रहा है कि खरीफ में अधिक उत्पादन होगा और इससे अर्थव्यवस्था को पंख लगेंगे। एक बात साफ हो जानी चाहिए कि किसानों का भला होगा तो केवल दीर्घकालीन सुधार कार्यों से। उसे अच्छा बीज मिले, फसलोत्तर गतिविधियां वैज्ञानिक हो, मूल्य संवर्द्धन के लिए कृषि आधारित उद्योग लगे, भंडारण खासतौर से कोल्ड स्टोरेज की चैन बने, कोल्ड स्टोरेज युक्त कंटेनर उपलब्ध हो ताकि उसकी उपज का सही मूल्य मिल सके। सबसे ज्यादा जरूरी है कि कृषि उपज के सरकारी मूल्यों की घोषणा समय पर, युक्तिसंगत और फिर फसल तैयार होते ही उसकी खरीद की व्यवस्था सुनिश्चित हो। किसान को सड़कों पर अपनी उपज फेंकने के हालात किसी भी हालत में नहीं आने चाहिए। सरकार को ऐसा रोडमेप बनाना होगा जो उत्पादकता और आय बढ़ाने वाला हो।


लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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