कैथी, कायथी या कायस्थी नाम से जानी जाने वाली मध्यकालीन उत्तर भारत की बेहद सरल, अत्यंत लोकप्रिय एवं द्रुत गति से लिखी जाने वाली ऐतिहासिक लिपि है। कैथी एक प्रमुख स्वतंत्र लेखन प्रणाली है, जिसका उपयोग संपूर्ण उत्तर भारत में, विशेष तौर पर वर्तमान बिहार और उत्तर प्रदेश में किया जाता था। इस लिपि का उपयोग मॉरिशस, त्रिनिदाद और उत्तर भारतीय प्रवासी समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे क्षेत्रों में भी किया जाता था। कैथी का उपयोग भोजपुरी, मगही, हिंदी, उर्दू सहित कई अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को लिखने के लिए भी किया जाता था।
उत्तर भारतीय समाज में कैथी लिपि के महत्व को इस लिपि में नियोजित गतिविधियों और लिखी व छपी हुई सामग्रियों की वृहत संख्या से जाना जा सकता है। 1854 में विद्यालयों में देवनागरी के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा कैथी लिपि में रचित प्रारंभिक पुस्तकें थीं।
नियमित लेखन, साहित्यिक रचना, वाणिज्यिक लेन-देन, पत्राचार और व्यक्तिगत रिकॉर्ड रखने के लिए इस लिपि का उपयोग किया जाता था। प्रशासनिक गतिविधियों के लिए कैथी के उपयोग का प्रमाण सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी के पहले दशक तक मिलता है। कैथी का उपयोग साहित्यिक और धार्मिक पांडुलिपियों को लिखने के लिए किया जाता था। इसकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह इसकी सादगी थी। जन साधारण में काफी लोकप्रिय होने की वजह से क्रिश्चियन मिशनरीज ने अपने साहित्यिक रचनाओं का अनुवाद इसी लिपि से किया।
कैथी को सिलेटी नागरी, महाजनी और कई अन्य लिपियों का पूर्वज भी माना जाता है। इसका इस्तेमाल देवनागरी, फ़ारसी और अन्य समकालीन लिपियों के साथ किया जाता था।
बिहार में लोकगीत, सूफी गीत और तंत्र-मंत्र की पुस्तकें भी कैथी लिपि में लिखी जा चुकी हैं। कर्ण कायस्थ की पंज्जी व्यवस्था की मूल प्रति भी कैथी लिपि में ही दरभंगा महाराज के संग्रहालय में सुरक्षित है। पटना म्यूजियम में कैथी लिपि की एक स्टोन स्क्रिप्ट भी संरक्षित है।
स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद अपनी पत्नी को कैथी लिपि में ही चिट्ठियां लिखा करते थे। यदि आप भोजपुरी के शेक्सपीअर कहे जाने वाले स्वर्गीय भिखारी ठाकुर के विषय में जानना चाहते हैं, तो आपको कैथी जानने की आवश्यकता होगी। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं भोजपुरी गीतों व पूर्वी धुन के रचयिता श्री महेंद्र मिश्र के विषय में भी जानकारियां आपको कैथी लिपि में ही मिलेंगीं। चम्पारण आंदोलन के लिए महात्मा गांधी को बिहार लाने वाले श्री राजकुमार शुक्ल जी की डायरी भी कैथी लिपि में ही मिली है। महान स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय वीर कुंवर सिंह के हस्ताक्षर भी कैथी लिपि में मिले हैं।
प्राचीन समय में भारत में कई स्थानों पर कायस्थ राजा हुआ करते थे। प्रशासनिक कार्यों के दक्षता से संपादन के लिए उन्होंने कैथी लिपि का आविष्कार किया। इसके अतिरिक्त अन्य राजाओं के दरबार में भी दैनिक महत्वपूर्ण जानकारियों को लिपिबद्ध और संरक्षित करने के लिए विशेष तौर पर इस कार्य को तत्परता से क्रियान्वित करने में दक्ष कायस्थों को स्थान दिया जाता था। कायस्थों के द्वारा प्रयुक्त यह लिपि कहलायी - कायस्थी, कायथी और फिर कैथी। महाजनों के द्वारा बही-खाते लिखने में इस्तेमाल होने के कारण यह महाजनी लिपि भी कहलाई।
लिपि के इतिहास में क्रमशः ब्राह्मी, खरोष्ठी, कुटीलाक्षय और फिर कैथी लिपि आती है। यह एक अत्यंत प्राचीन लिपि है। इसकी शुरुआत पांचवीं-छठी शताब्दी में हुई थी। गुप्त काल में राजलिपि के रूप में इसने अपना स्वर्णिम काल देखा। यह स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी तक कैथी एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण लेखन प्रणाली के रूप में विकसित हो गयी थी। मुगल काल में जनसाधारण की लिपि के रूप में इसका उपयोग अपनी चरम पर था। 1540 में उत्तर भारत के सूरी वंश के संस्थापक बादशाह शेरशाह सूरी ने इसे अपने राजदरबार में आधिकारिक रूप से शामिल किया। उस वक्त के आधिकारिक दस्तावेजों में हुए कैथी लिपि के इस्तेमाल को हम आज भी देख सकते हैं। शेरशाह सूरी ने अपने राज्य में व्यावसायिक लेन-देन के लिए कैथी में मुहरें भी ढलवाईं थीं।
सत्रहवीं शताब्दी की पांडुलिपियों से पता चलता है कि कैथी एक बेहद सशक्त साहित्यिक माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित थी। 19वीं शताब्दी तक बिहार में कैथी को ब्रिटिश प्रशासन की आधिकारिक लिपि के रूप में मान्यता दी गई थी। 1880 में ब्रिटिश सरकार द्वारा इसे प्राचीन बिहार के न्यायालयों में वैधानिक सरकारी लिपि के रूप में भी मान्यता दी गई। 1881 में इस लिपि के उपयोग पर रोक लगा दी गयी, परन्तु इसकी कार्यकुशलता की वजह से 1882 में इसे पुनः अपना लिया गया।
1913 में इसके इस्तेमाल पर पूर्णरूपेण रोक लगा दी गयी, परन्तु जनसाधारण के बीच अत्यंत लोकप्रिय होने की वजह से 1914 तक सरकारी दफ्तरों में इसका इस्तेमाल होता रहा। भूमि निबंधन जैसे कार्यों में इस लिपि का उपयोग 1970 तक होता रहा।
कैथी लिपि का प्रभाव काफी दूर तक फैला हुआ था। संपूर्ण बिहार, बंगाल का मालदा, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तक इस लिपि को जानने वाले लोग मौजूद थे। बंगाल के पश्चिमी क्षेत्रों समेत संपूर्ण उत्तर भारत में सबसे ज्यादा लोकप्रिय लिपि थी कैथी।
कैथी एक अत्यंत ही प्रभावशाली लिपि रही है। इससे कई प्रमुख भाषाओं का जन्म हुआ है, जिनमें कुछ प्रमुख भाषाएं निम्न हैं -
बिहारी : बिहारी शब्द का इस्तेमाल सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने आधुनिक इंडो आर्यन भाषाओं और उनके उप परिवार को इंगित करने के लिए किया था। ग्रियर्सन ने लिखा है, ‘‘बिहारी अर्थात बिहार की खास भाषा है, यह बंगाली और पूर्वी हिंदी के बीच का स्थान लेती है’’। अन्य लोगों ने ’बिहारी’ शब्द को अपनाकर उसका इस्तेमाल जारी रखा। यही कारण है कि कैथी को बिहार की लिपि कहा जाता है। हालांकि इसका भौगोलिक विस्तार और प्रभाव बिहार और उसके बाहर के क्षेत्रों में भी है।
अवधि : उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और नेपाल में प्रमुख रूप से बोले जाने वाली भाषा ’अवधि’ की लिपि भी कैथी है। अवधि का बैसवारी प्रकार भी कैथी में लिखा जाता है। ऐतिहासिक रूप से अवधि कैथी और देवनागरी दोनों लिपि में लिखी जाती है।
भोजपुरी : उत्तर बिहार की प्रमुख भाषा ’भोजपुरी’ की पारंपरिक लिपि भी कैथी है। भोजपुरी बोलने वाली आबादी मध्य प्रदेश, नेपाल, मॉरिशस, गुएना, त्रिनिदाद, साउथ अफ्रीका, सूरीनाम और फिजी में भी काफी है।
मगही : मगही बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में बोली जानी वाली एक प्रचलित भाषा है। मगही भाषा की पारंपरिक लिपि भी कैथी है।
मैथिली : मैथिली मुख्यतः बिहार और नेपाल में बोली जाती है। संविधान की आठवीं अनुसूची के अंतर्गत इस भाषा को भारत की ऑफिशियल भाषाओं में शामिल किया गया है। पारंपरिक रूप से ब्राह्मणों के द्वारा मैथिली लिखने के लिए मिथिलाक्षर लिपि का और कायस्थों के द्वारा कैथी लिपि का उपयोग किया जाता था।
बज्जिका : नारायणी नदी के पूर्वी तट से लेकर बागमती नदी के पश्चिमी तट तक फैले - बिहार के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र, जिसे आमतौर पर बज्जिकांचल भी कहा जाता है, की भाषा है बज्जिका। समस्तीपुर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली, पूर्वी चम्पारण, सारण, शिवहर, दरभंगा और नेपाल में भी यह भाषा बोली जाती है। बज्जिका भाषा की लिपि भी कैथी है।
उर्दू : 1880 में परसो-अरबिक के स्थान पर कैथी लिपि का उपयोग बिहार की कचहरियों में होने लगा। ब्रिटिश काल के बिहार के अधिकतर कानूनी दस्तावेज कैथी लिपिबद्ध उर्दू भाषा में हैं।
अन्य भाषाएं : बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी कैथी लिपि का उपयोग किया जाता था। राजस्थान के पश्चिमी ओर कहीं-कहीं मारवाड़ी लिखने के लिए भी कैथी भाषा का उपयोग किया जाता था।
कैथी और देवनागरी लिपि में समानताएं तो बहुत हैं, किन्तु कुछ मूलभूत अंतर भी हैं। अति तीव्र गति से लिखे जाने की आवश्यकता - यही अंतर कैथी को विशिष्ट बनाता है।
कैथी लिपि के पराभव के एक नहीं अपितु कई कारण रहे हैं, परन्तु मुख्यतः अंग्रेजों के ‘फूट डालो और राज करो’ नीति की वजह से कैथी के अंत की शुरुआत हुई। कैथी उस वक्त हरेक विद्यालय में पढ़ाई जाती थी। किन्तु, तब साक्षरता दर ही बहुत कम थी। इस कारण से सिर्फ साक्षर लोग ही कैथी पढ़ना जानते थे। आम निरक्षर लोग इसे पढ़ने में खुद को असमर्थ पाते थे। इसी का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने आम लोगों के बीच यह अफवाह फैला दी कि कैथी सिर्फ कर्ण कायस्थों की लिपि है। कायस्थ इस लिपि का फायदा उठाकर बही खाते में कुछ भी लिख देते हैं। इस बात पर विश्वास कर कुछ लोगों ने इस लिपि का विरोध शुरू कर दिया। 1930-35 आते-आते यह लिपि खात्मे के कगार पर पहुंच चुकी थी। आजाद भारत की पहली जनगणना रिपोर्ट 1952 में आई, जिसमें जानबूझकर कैथी लिपि का कहीं भी जिक्र नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त देवनागरी हिन्दुओं और पर्शियन मुसलमानों के द्वारा अधिक इस्तेमाल की जाती थी। परन्तु कैथी लिपि निर्विवादित रूप से हिन्दुओं और मुसलमानों - दोनों के द्वारा इस्तेमाल की जाती थी। इस कारण से कट्टरपंथी लोग कैथी के इस्तेमाल के पक्षधर नहीं थे।
आज के समय में कैथी लिपि मात्र कागजों में ही सिमटकर रह गई है। इस लिपि के जानकार आज गिने-चुने ही बचे हैं। यह लिपि आज अपनी विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है। आवश्यकता है इस विशाल और प्राचीन लिपि के संरक्षण की और इसके प्रति जन जागरूकता बढ़ाने की।
यूनेस्को के एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ-साथ एक पूरी संस्कृति विलुप्त हो जाती है, एक पूरा इतिहास विलुप्त हो जाता है।’’
कैथी लिपि कायस्थों समेत कैथी जानने वाले सभी परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाई जाती थी। कैथी जानने वाली एक पूरी पीढ़ी ने अपनी नयी पीढ़ी को इस लिपि से अवगत नहीं कराया। इस लिपि में दर्ज दस्तावेजों को दूसरी लिपि में अनुवाद भी नहीं कराया।
भारत में सबसे अधिक विवादित जमीन बिहार में है। इसका प्रमुख कारण है कैथी लिपि। भूमि संबंधित सभी पुराने कागज कैथी में हैं। इन्हें पढ़ सकने वाले लोगों की संख्या न के बराबर है। भूमि संबंधित विभाग इन्हें पढ़ नहीं पाता, ना ही बैंक इन कागजों के आधार पर लोन ही दे पाती है। भूमि विवाद न्यायालयों में सुलझ भी नहीं पाते।
आज भी इस लिपि में कई प्राचीन और बहुमूल्य जानकारियों को समेटे कई दस्तावेज संरक्षित हैं, किन्तु इनमें लिखी जानकारियों को पढ़ सकने वाले लोगों की संख्या काफी नगण्य रह गयी है।
कैथी लिपि हमारे इतिहास और इतिहास में दर्ज कई बहुमूल्य जानकारियों की साक्षी रही है। पांचवीं शताब्दी से शुरू होने वाली यह लिपि बीसवीं शताब्दी के पहले दशक तक अलग-अलग समयों और जगहों पर जनलिपि, व्यापारिक लिपि, राजकीय लिपि और न्यायप्रणालिक लिपि के रूप में काफी प्रसिद्द, समृद्ध और व्यावहारिक रही है। आज भी बिहार, उत्तर प्रदेश, नेपाल, आदि जगहों में भूमि और न्यायालय से संबंधित पुराने दस्तावेज कैथी लिपि में मिलेंगे। इन दस्तावेजों को पढ़ने के लिए कैथी के जानकार अमीन की आवश्यकता पड़ती है। कई बहुमूल्य जानकारियों की साक्षी होना ही आज के समाज में इसके प्रासंगिक होने का कारण है। आज इस लिपि के बहुत कम जानकार का होना ही यह साबित करता है कि इस लिपि को सीखने-सिखाने की कितनी आवश्यकता है !
साभार : कैथी लिपि डॉट कॉम
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