नये दौर में आरक्षण विवाद

डॉ. प्रभात ओझा

Reservation

यह सिर्फ संयोग हो सकता है कि हम बांग्लादेश में आरक्षण व्यवस्था के हिंसक विरोध के बीच भारत के दो बड़े राज्यों में इससे सम्बंधित हालिया हलचल की बात करें। हम कर्नाटक और महाराष्ट्र में इससे सम्बंधित हलचल के पहले बांग्लादेश के मुद्दे को समझें। वहां अभी कोटा पद्धति के तहत सरकारी नौकरियों में 56 प्रतिशत आरक्षण है। इनमें से अकेले 30 प्रतिशत 1971 के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल सेनानियों के वशंजों के लिए है। ज्ञातव्य है कि एक लंबे आंदोलन और खूनी संघर्ष के बाद पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश का उदय हुआ था। बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन में भारतीय सेनाओं की उल्लेखनीय मदद इतिहास की गौरव गाथा की तरह है। बहरहाल, वहां स्वतंत्रता सेनानियों के उत्तराधिकारियों के लिए आरक्षित 30 फीसदी सीटों के अलावा 10 प्रतिशत पिछले जिलों के निवासियों, इतना ही महिलाओं, 05 प्रतिशत अल्पसंख्यकों और 01 प्रतिशत विकलांग उम्मीदवारों के लिए है। इन दिनों 30 फीसद स्थान आजादी के लिए संघर्ष में शामिल लोगों के वंशजों के आरक्षण के खिलाफ इस देश में उबाल है। कई लोगों की जान जा चुकी है और सैकड़ों लोग घायल हैं। ये हालात भारत में वी.पी. सिंह सरकार के दौरान मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के बाद हिंसक आंदोलनों की याद दिलाते हैं। फिलहाल तो दो बड़े राज्यों में शुरू आरक्षण सम्बंधी छोटी-सी हलचल की चर्चा करते हैं।

पिछले दिनों कर्नाटक और महाराष्ट्र में दो गतिविधि आरक्षण के मुद्दे पर सोचने की जरूरत बताती है। नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने की इजाजत संविधानसम्मत नहीं है। फिर भी कई राज्य सरकारों ने ऐसा किया है। अभी कर्नाटक में एक बिल आया, जिसके मुताबिक राज्य की प्राइवेट कंपनियों के लिए 50 से 100 फीसदी तक स्थानीय लोगों को ही नौकरियों में रखने की व्यवस्था है। बिल के कानून बनने से पहले ही प्राइवेट कंपनियों ने इस पर चिंता जताई। उनका तर्क था कि ऐसा करने से सेवाओं में सुयोग्य लोगों की कमी हो जाएगी। इसके लागू होने पर कुछ कंपनियों ने राज्य के बाहर जाने के भी संकेत दे डाले। कर्नाटक अन्य उद्योगों के साथ आईटी सेक्टर का ‘हब स्टेट’ माना जाता है। यहां देश से बाहर से भी लोग नौकरियों में हैं। कंपनियों के दबाव के बाद राज्य सरकार ने फिलहाल इस बिल को रोक लिया है। हालांकि अपने फैसले पर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा है कि उनकी सरकार कन्नड़ हितों के मुद्दे पर ही बनी है। उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार भी इसी तरह के बयान देते हैं।

कर्नाटक के पहले भी कुछ सरकारों ने इस तरह के स्थानीय आरक्षण की पहल की है। इनमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, हरियाणा और मध्य प्रदेश शामिल हैं। इस तरह की कोशिश विवादों के बीच या तो रोक दी गईं अथवा न्यायालयों में विचाराधीन हैं। असल में हमारा संविधान जन्म अथवा निवास स्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। कर्नाटक सरकार का नया बिल राज्य में पैदा हुए कन्नड़ लोगों अथवा निवास कर रहे कन्नड़भाषियों को आरक्षण देनेवाला है।

कर्नाटक के अलावा महाराष्ट्र में आरक्षण की नई सुगबुगाहट हुई है। अभी फरवरी में राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों में एक विधेयक पारित हुआ है। इस विधेयक के तहत ‘विशेष मराठा समुदाय’ के लिए नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण दिया गया है। महाराष्ट्र का मराठा समुदाय एक लड़ाका वर्ग रहा है और शासकों की श्रेणी में भी रहा। इस समुदाय के लोग आज कृषि से लेकर उद्योग-धंधों में भी हैं। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए आरक्षण में क्रीमी लेयर का सिद्धांत रखा गया है। यानी इस समुदाय के जो लोग एक निश्चित आय से अधिक अर्जित करते हैं अथवा उनकी संपत्ति है, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। यह विधेयक रिटायर्ड जस्टिस सुनील बी. शुक्रे के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की एक रिपोर्ट के आधार पर बना। इसके पहले 2014 और 2018 में भी मराठा समुदाय को आरक्षण देने की कोशिश हुई, किंतु यह कानूनी आधार पर खारिज हो गया। इस आरक्षण पर नया विवाद इसलिए है कि आरक्षित मराठे अपने को कुनबी जाति में शामिल करने की मांग करते रहे हैं। इन्हें कुनबी जाति के प्रमाण पत्र जारी करने के प्रयास का अन्य पिछड़ा वर्ग विरोध कर रहा है। लोकसभा चुनाव के पहले भी यह मुद्दा छाया रहा और राज्य में भाजपा सहित विपक्षी गठबंधन को इसका नुकसान उठाना पड़ा है। अब विधानसभा चुनाव नजदीक है और मराठा आंदोलन के नेता मनोज जरांगे पाटिल को दोनों खेमे अपने साथ रखने की कोशिश में हैं। विरोध ओबीसी कोटे के अंदर मराठाओं को आरक्षण देने की कोशिश पर है।

सामाजिक-आर्थिक रूप से सक्षम समुदायों की आरक्षण की मांग नई नहीं है। मराठों के पहले हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय भी ऐसी मांग करता रहा है। वर्ष 2016 में तो उसके आंदोलन से हरियाणा में जनजीवन लगभग 10 दिनों तक ठप ही पड़ गया था।

इस पूरे परिदृश्य में मुख्य बिंदु यह है कि नौकरी की उम्मीद पाले लोगों की जरूरतों के मुताबिक पब्लिक सेक्टर की सीमाएं और अधिक बढ़ती जा रही हैं। दूसरी ओर प्राइवेट सेक्टर अपने उत्पादन लक्ष्यों और लागत को ध्यान में रखते हुए किसी भी तरह के बाहरी दबाव को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं। इन दबावों में सरकारों के आरक्षण सम्बंधी नियम भी हैं। उन्हें लगता है कि अपने काम में दक्ष लोग ही उनके लिए आरक्षित वर्ग में हैं, चाहें वे किसी भी जातीय समुदाय से हों। दुख है कि नौकरियों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण भी विवाद में आ गया है। वहां इस तरह की मांग उठने लगी है कि जरूरतमंदों को आर्थिक संबल देकर शिक्षित बनाया जाए। आरक्षण का किसी भी तरह का नया विवाद एक आशंका को जन्म देता है। इस तरह की आशंकाओं को समूल खत्म करना प्रमुख विचारणीय मुद्दा होना चाहिए। स्वरोजगार और उसके लिए सरकारी सहायता को बहुत अधिक बढ़ाया जाना आवश्यक है।

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ