हिन्दी अब दुनिया की भाषा बन रही है

एडवोकेट डॉ. श्रीगोपाल नारसन

Hindi

यह सच है कि हिन्दी आज सबसे अधिक बोली जाने वाली संसार की तीसरी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। हिन्दी भाषा, भारत के साथ-साथ मॉरीशस, युगांडा, गुयाना, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, सूरीनाम, त्रिनिदाद, साउथ अफ्रीका में भी अपनाई जा रही है। अमेरिका, यूरोपीय, एशियाई व खाड़ी के देशों में भी हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ी है। रूस के तो कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य एवं हिन्दी भाषा को लेकर शोध कार्य हुआ है। हिन्दी साहित्य में जितना अनुवाद रूस ने कराया, उतना किसी अन्य भाषा के साहित्य का नहीं कराया गया। यह हिन्दी के प्रति रूस के बढ़ते रुझान का प्रतीक है।

भारत में हिन्दी दीर्घकाल से जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क, संवाद व लेखन की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद, शंकराचार्य आदि ने भी हिन्दी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत, कवियों जैसे - असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था। इंटरनेट पर हिन्दी भाषा सामग्री लिखने व पढ़ने वालों की संख्या में हर साल 94 प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी हो रही हैं। अंग्रेजी भाषा में हर साल 17 प्रतिशत की घटत हिन्दी के बढ़ने का एक बड़ा कारण है। इस साल के अंत तक दुनिया में 25 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी को अपनाने लगेंगे।

संसार के 200 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। हिन्दी भाषा का अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान निरन्तर बढ़ रहा है। फिजी में हिन्दी को राजभाषा का अधिकारिक दर्जा प्राप्त है, जो अवधी, भोजपुरी और क्षेत्रीय बोलियों से मिलकर बनी है। अमेरिका के तीस से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पर काम हो रहा है। जापान में हिन्दी के प्रति रुचि और इसे कॅरियर व व्यवसाय से जोड़कर हिन्दी के पाठ्यक्रम शुरू किए गए है, जो एक शुभ संकेत है। विधि व विज्ञान की उच्च पढ़ाई अब हिन्दी में होना एक बड़ी सफलता है। कभी अंग्रेजों को भी हिन्दी का आश्रय लेना पड़ा था। अंग्रेजों को जनता व सरकार के बीच संवाद में जब फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से परेशानी हुई, तो अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की थी। यहां से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा था।

सी.टी. मेटकाफ ने 1806 ई. में अपने गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा था, ‘भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक, मैंने हिन्दी भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दी बोल लेते है।’ टॉमस रोबक ने 1807 ई. में कहा था, ‘जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दी सीखनी चाहिए।’

विलियम केरी ने सन 1816 ई. में माना था कि ‘हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं, बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।’ एच.टी. कोलब्रुक का मानना रहा कि ‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।’ जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को ‘आम बोलचाल की महाभाषा’ मानते थे। हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था।

अंग्रेजों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा था। राजा राममोहन राय ने सन 1828 में कहा था, इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है। ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने सन 1875 ई. में एक लेख लिखा था, भारतीय एकता कैसे हो, जिसमें उन्होंने लिखा - उपाय है सारे, भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएं भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए, तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।

महर्षि दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस ‘आर्यभाषा’ को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, ‘मेरी आंखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएंगे।’

महर्षि अरविन्द घोष की सलाह थी कि ‘लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।’ एनी बेसेंट ने कहा था, भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है, जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।

राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ़ इस भाषा में ही विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य समाज सुधारकों ने किया, इन्ही प्रयासों के बलबूते हिन्दी निरंतर बढ़ रही है और देश सीमा पार उन गैर हिन्दी देशों में भी अपनाई जाने लगी है, जो कभी हिन्दी से अनजान थे। हिन्दी को दुनिया की भाषा बनाने में भारतीय हिन्दी सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान है। आज दुनिया के अनेक देशों में लोग हिन्दी फिल्मों के माध्यम से हिन्दी को आत्मसात कर रहे है।

लेखक, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के उपकुलपति एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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