‘रील’ की विकृत मानसिकता

डॉ. सुनीता द्विवेदी


दुनिया भर में ऑनलाइन जितना समय लगाया जाता है, उसमें मोबाइल आगे है। हर किसी के हाथ में, हर समय, हर जगह उपलब्ध रहनेवाला यह उपकरण आवश्यक होने के साथ-साथ समाज में एक अजीब-सी मनोवैज्ञानिक समस्या उत्पन्न कर रहा है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर रील बनाकर तुरंत लोकप्रिय होने और उससे पैसा कमाने के चक्कर में युवा न जाने क्या-क्या कर रहे हैं। ज्यादातर रील में मनोरंजन और जानकारी से अधिक फूहड़ता, भद्दे कंटेंट एवं मजाक और फैशन के नाम पर शरीर को अनावृत्त करते हुए परिधान बिखरे हुए हैं। ...और बहुत पीछे छूट गयी है हमारे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की एक बड़ी दुनिया।

रील बनाने वाला यह वर्ग समाज के हर स्तर से आता है और एक दूसरे से इंस्पायर हो रहा है। वास्तविक सक्रियता समाप्त हो रही है और रील के माध्यम से ज्यादातर अश्लीलता परोसी जा रही है। लाइक के एक बटन पर प्रशंसा पाने वाली यह पीढ़ी समझ ही नहीं पा रही है कि वह इसकी कौन सी कीमत चुका रही है या इसके बदले वह क्या खो रही है। यह एक प्रकार की विकृत मानसिकता है जो सभी आयु वर्ग के लोगों को धीरे-धीरे चंगुल में ले रही है। 

यह उनके बारे में भी है, जो इस प्रकार की सामग्री को बार-बार देख रहे हैं... परिणाम निराशा, कम आत्म-सम्मान और व्याकुलता है। यह सबके स्वास्थ्य पर असर तो डाल ही रही है, उससे भी अधिक जो समय पारस्परिक संबंधों को दिया जाना चाहिए, वह अलगाव में बर्बाद हो रहा है। वास्तविक रिश्तों की कमी, युवा को रील ट्रेंड का अनुसरण करने, आभासी ध्यान और लोकप्रियता प्राप्त करने और चलन में बने रहने के कारण रीलों के निर्माण में संलग्न होने के लिए मजबूर कर रही है। युवाओं को इससे बचना चाहिए।

डॉ. सुनीता द्विवेदी

एसोसिएट प्रोफेसर - मनोविज्ञान, नव्युग कन्या महाविद्यालय, लखनऊ

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