डॉ. रमेश ठाकुर
दिल्ली का निर्भया कांड जिसने आधी आबादी पर होते जुल्म को देखकर गहरी नींद में सोनेवाले संपूर्ण मानव समाज को झटके से जगाया था, वो समाज शायद अब फिर से सोने लगा है। झकझोर देनेवाली उस घटना के बाद कुछ वर्षों तक तो लोगों में महिला जागरूकता को लेकर अच्छी खासी चेतनाएं रहीं, लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, लोग सबकुछ भूलते चले गए। देखकर दुख होता है, जब भीड़ की मौजूदगी में भी हिंसक प्रवृति के लोग महिलाओं का सरेआम उत्पीड़न करते हैं और लोग तमाशबीन बनकर चुपचाप देखते रहते हैं। उस वक्त थोड़ा सा भी कोई विरोध नहीं करता। विरोध न करना ही, अपराधियों के हौसले बढ़ाना होता है। बीते सात-आठ महीनों में मणिपुर में हुई ऐसी तमाम घटनाएं इस बात का उदाहण हैं।
महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती हिंसक घटनाओं को रोकने की वकालतें तो पूरा जग-जमाना करता है। पर, ये तभी संभव हो पाएगा, जब जनमानस सामूहिक रूप से एकत्र होकर इस काम में आहुति देगा। कड़ाई से मुकाबला करना होगा। लज्जित होने वाली प्रत्येक महिलाओं को हमें अपनी मां-बहन समझना होगा। ये बातें आज ‘अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन’ के खास दिवस पर करना इसलिए जरूरी हो जाता है, ताकि हम सभी संकल्पित हो सकें।
बहरहाल, खास दिवसों को मनाने के पीछे कोई न कोई वजहें जरूर होती हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के पीछे भी एक वजह है। बात कोई पांच-छह दशक पूर्व की है, जब डोमिनिकन शासक ‘राफेल ट्रूजिलो’ के आदेशानुसार डोमिनिकन गणराज्य की तीन सगी बहनों, पैट्रिया मर्सिडीज मिराबेल, मारिया अर्जेंटीना मिनर्वा मिराबल व एंटोनिया मारिया टेरेसा मिराबल की एकसाथ सामूहिक निर्मम हत्या कर दी गई। तीनों बहनों का गुनाह मात्र इतना था, उन्होंने ट्रूजिलो की दमनकारी और तानाशाही हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई थी। उस घटना की समूचे संसार में निंदा हुई, तभी महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने तीनों बहनों की मौत की सालगिरह पर हिंसा के खिलाफ ये खास दिन मनाने की रिवाज शुरू की। इसके बाद इस दिवस को संयुक्त राष्ट्र से सरकारी मान्यता भी मिली। 17 दिसंबर, 1999 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 25 नवंबर को महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में नामित कर लिया। तभी से ये दिवस मनाया जाने लगा।
वैसे, हुकूमती व्यवस्था में वूमेन क्राइम पर रोकथाम के लिए कानूनों की कमी नहीं, बहुतेरे कानून हैं और सामाजिक स्तर पर सजगता-जागरूकता की भी कोई कमी नहीं ? महिलाओं पर बढ़ती हिंसक घटनाएं किसी भी सूरत में रूके, इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारें धन खर्च करने में भी पीछे नहीं हटती। बावजूद इसके सभी कोशिशें नाकाफी साबित होती हैं। अगर गौर करे तो ये प्रयास मुकम्मल हो सकते हैं। इसके लिए समाज को गहरी नींद से जागना होगा, चुप्पी तोड़कर दुर्दांत व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठानी होगी। महिलाओं पर जुल्म ढ़हाने वाले भेडिए हमारे इर्द-गिर्द ही मंडराते हैं। उन्हें देखकर कई मर्तबा हम इग्नोर कर देते हैं, जो हमारी सबसे बड़ी भूल होती है। उसी भूल का ही अपराधी फायदा उठाते हैं। ऐसे तत्वों से मुकाबले के लिए अगर समाज एकजुटता हो जाए और उन्हें ललकारना शुरू कर दे, तो किसी की भी हिम्मत महिलाओं पर हिंसा करने की नहीं होगी ? अपराधी हिंसा करने से पहले सौ बार सोचेंगे।
एक बेहतरीन उदाहण पंजाब के भठिड़ा में टांसजेंडर समुदाय ने पेश किया। कॉलेज के बाहर कुछ शरारती तत्व रोजाना कॉलेज की छात्राओं पर गंदे इशारे करते थे, एकदिन उन्हें पकड़कर टृंसजेंडरों ने अच्छी सुताई करी और बाद में पुलिस के हवाले कर दिया। ठीक इसी तरह समाज को चेतना होगा।
बहरहाल, तेज गति से फैला वूमेन क्राइम सिर्फ हिंदुस्तान तक ही सीमित नहीं, बल्कि समूचे संसार में विकराल समस्या बन चुका है। पूरे विश्व में महिलाओं के प्रति हिंसा, शोषण एवं उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं, इन पर अंकुश लगाने और उन्मूलन हेतु ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिवर्ष आज के ही दिन यानी 25 नवंबर को ’अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन’ दिवस मनाने का निर्णय लिया। मकसद, आधी आबादी के अस्तित्व, अस्मिता एवं उनके योगदान के लिए दायित्वबोध की चेतना का संदेश फैलाना है, जिसमें महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने का संकल्प भी है। महिला उत्पीड़न की घटनाओं पर हमें आंख नहीं मूंदनी चाहिए, अगर ऐसा करेंगे तो हो सकता है अगला नंबर हमारे घर की महिलाओं का हो।
एनसीआरबी रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि हिंदुस्तान में प्रतिदिन 246 लड़कियां गायब होती हैं, जिनकी उम्र 14 से लेकर 18 वर्ष के बीच होती हैं। एनसीआरबी ने 1,529 महिला के गायब होने के भी आंकडे प्रस्तुत किए गए हैं। प्रतिदिन 87 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। देशभर की बात करें, तो 2022 में 90,989 लड़कियां गायब हुई। जबकि, महिलाओं की संख्या 3,95,041 है। ये आंकड़े निश्चित रूप से भयभीत करते हैं। इन आंकड़ों में कमी आए और महिला उत्पीड़न की घटनाएं रुके, इसका पक्षधर सभी को होना पड़ेगा।
वूमेन क्राइम तभी कम हो पाएगा, जब समाज प्रहरी भूमिका में आएगा। ये काम अकेले सरकार के बूते का नहीं है। 21वीं सदी की हुकूमतें बेशक महिला सशक्तिकरण पर सराहनीय कार्य का दंभ भरें, लेकिन वास्तविकता बहुत विपरीत है। रोजाना के अखबारों की सुर्खियों या खबरें देखें तो एक तिहाई खबरें स्त्रियों पर अत्याचार संबंधित छपी दिखाई देती हैं। ये सच है कि स्त्री अस्मिता से जुड़ा हर पक्ष अपने आप में महत्वपूर्ण है। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज इसे समझते हुए भी न समझने का नाटक करता है। महिला सुरक्षा सभी का दायित्व होना चाहिए।
लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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