अजय कुमार शर्मा
आज के फिल्म प्रेमियों को शायद यह बात पता न हो कि हिन्दी सिनेमा में एक हीरो ऐसा भी हुआ है, जो शूटिंग के दौरान घोड़े से गिरकर बेहोश हो गया और मेकअप उतारे बिना ही इस दुनिया से हमेशा के लिए चला गया। इस सितारे का नाम था श्याम। इस घटना को हुए लगभग 72 वर्ष हो चुके हैं। श्याम का पूरा नाम श्याम सुंदर चड्ढा था। उनकी अभिनय यात्रा मात्र बारह वर्ष रही। उन्होंने केवल 32 वर्ष की आयु पाई, लेकिन इतनी कम आयु में ही उन्हें सुपर स्टार का दर्जा हासिल हो चुका था। वे केएल सहगल के बाद बने दूसरे सुपर स्टार थे। इतने कम समय में जो लोकप्रियता और प्रसिद्धि उन्होंने पाई, वह कम ही लोगों को नसीब होती है।
उनका जन्म 22 फरवरी, 1920 को सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ था। पांच भाई-बहनों में वे सबसे बड़े थे। उनके पिता सीताराम चड्ढा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सेना में भर्ती हो गए थे। इसलिए श्याम की पढ़ाई रावलपिंडी, कोहाट, ऐबटाबाद और पेशावर में हुई। उन्होंने पेशावर के खालसा हाई स्कूल से प्रथम श्रेणी में दसवीं की और उच्च शिक्षा रावलपिंडी के एक कॉलेज से प्राप्त की। लेकिन पहले साल ही उन्हें टायफाइड हो गया, जो उन दिनों बहुत घातक माना जाता था। परंतु श्याम ने इस बीमारी को तो हराया ही, बल्कि इस कारण उनके शरीर में कई विचित्र बदलाव हुए। उनका औसत कद अचानक बढ़कर छह फीट से अधिक हो गया और उनका व्यक्तित्व भी आकर्षक होकर निखर आया।
वे कॉलेज के नाटकों और अन्य स्टेज कार्यक्रमों में काम करने लगे और प्रशंसा भी पाने लगे। तभी उनके एक मित्र जहूर राजा, जो उनके साथ ही काम करते थे, बंबई चले गए। जब कुछ समय बाद वह रावलपिंडी आए, तबतक श्याम बीए पास कर चुके थे और बंबई (अब मुंबई) जाने के लिए तैयार हो गए। इसके लिए परिवार को मनाने का काम उनके चाचा ने किया। शायद उनकी किस्मत भी साथ दे रही थी कि तभी बॉम्बे टॉकीज ने नए चेहरों की तलाश के लिए एक विज्ञापन दिया। श्याम ने अपने फोटोग्राफ्स और बायोडाटा वहां भेजा और उसके बाद बुलावे पर स्क्रीन टेस्ट दिया।
स्क्रीन टेस्ट में तो वह पास हो गए, लेकिन लंबे कद के कारण हीरोइन छोटी पड़ रही थी, अतः उनको काम नहीं मिला। वह लाहौर लौट आए। उन्हें यहां एक पंजाबी फिल्म गवांडी में काम करने का मौका मिला, जो हिट रही। 1942 में उन्हें निर्माता निर्देशक आरसी तलवार ने फिल्म खामोशी के लिए कोलकाता बुलाया। इस फिल्म में उनकी हीरोइन रमोला थीं। यह फिल्म हल्की-फुल्की कॉमेडी थी और खूब पसंद की गई। अगले साल उन्होंने फिल्म भलाई की, जिसमें पृथ्वीराज कपूर भी थे। मुंबई और कोलकाता के बाद श्याम शालीमार पिक्चर्स की फिल्म ‘मन की जीत’ के लिए पुणे आए।
इस फिल्म की नायिका थी नीना और इसके गीत बहुत मशहूर हुए थे, जो जोश मलीहाबादी के लिखे हुए थे। इस फिल्म से श्याम को व्यापक पहचान मिली, लेकिन वह स्टार फिल्म मजबूर (1948) से बने। इसमें पहली बार उन्होंने मुनव्वर सुल्ताना के साथ काम किया था। फिल्म के संगीतकार थे गुलाम हैदर। कारदार प्रोडक्शन की फिल्म दिल्लगी (1949) ने उन्हें सुपर स्टार बना दिया। फिल्म की नायिका थीं सुरैया और संगीत था नौशाद अली का। इस फिल्म का गीत - तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी... सहित अन्य गीत भी खूब पसंद किए गए। इसी वर्ष आई उनकी फिल्म बाजार और पतंगा (निर्देशक एचएस रवेल) के गीत भी गली-गली गूंजे।
पतंगा फिल्म के संगीतकार थे सी. रामचंद्र और इसका गाना - मेरे पिया गए रंगून वहां से किया है टेलीफून... और गोरे-गोरे मुखड़े पे... काफी लोकप्रिय हुए थे। 1950 में फिल्मीस्तान के लिए उन्होंने दो फिल्में निर्दाेष तथा समाधि साइन की। निर्दाेष तो कुछ खास नहीं चली, लेकिन समाधि में श्याम ने अशोक कुमार के भाई की भूमिका निभाई थी। फिल्म में नलिनी जयवंत और कुलदीप कौर भी थीं। कुलदीप कौर से उनका प्रेम प्रसंग भी चला। फिल्म का संगीत सी. रामचंद्र का था और इसका एक गीत - गोरे गोरे ओ बांके छोरे... आज भी बहुत शौक से सुना जाता है। 1950 में ही श्याम की फिल्में छोटी भाभी, संगीता, सूरजमुखी, चांदनी रात, चार दिन, कनीज, रात की रानी तथा मीना बाजार आई।
1951 में ही श्याम की आखिरी फिल्म शबिस्तान शुरू हुई, जिसमें उनके साथ नसीम बानो, कुक्कू, सप्रू एवं मुराद भी काम कर रहे थे। श्याम इस फिल्म में राजकुमार की भूमिका निभा रहे थे। फिल्म की कुछ रीलें बन चुकी थीं। 25 अप्रैल के उस मनहूस दिन फिल्म की आउटडोर शूटिंग में वे घोड़े से गिरकर बेहोश हो गए। उन्हें बॉम्बे हॉस्पिटल लाया गया, लेकिन शाम को ही उन्होंने दम तोड़ दिया। श्याम की मौत ने पूरे बंबई शहर को हिला दिया। कहते हैं कि उनकी अंतिम यात्रा में इतने लोग शामिल हुए थे कि सारी बंबई उस दिन ठहर सी गई थी।
उनकी मौत के दो महीने बाद उनकी बीवी मुमताज कुरैशी, जिसे श्याम प्यार से ताजी कहते थे, ने एक बेटे को जन्म दिया। एक बेटी सेहरा पहले से ही थी। बाद में उनकी पत्नी अपने दोनों बच्चों को लेकर पाकिस्तान चली गई थीं। श्याम की बच्ची बाद में पाकिस्तान टेलीविजन की मशहूर प्रोड्यूसर बनी और उनका बेटा डॉक्टर, जो लंदन में रहता था। श्याम के उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यकार सआदत हसन मंटो से बहुत अच्छे संबंध थे। मंटो ने उन पर एक शब्द चित्र लिखा था - मुरली की धुन, जिसमें उन्होंने श्याम से अपनी पहली मुलाकात से लेकर अपने पाकिस्तान जाने तक साथ बिताए गए लम्हों का खाका खींचा है।
वह लिखते हैं - श्याम सिर्फ बोतल व औरत का रसिया नहीं था। जिंदगी में जितनी नेमतें मौजूद हैं, वह उन सब का आशिक था। अच्छी किताब से भी उसी तरह प्यार करता था, जिस तरह एक अच्छी औरत से करता था। श्याम आशिक था, इश्कपेशा नहीं। वह हर खूबसूरत चीज पर मरता था। मेरा ख्याल है कि मौत जरूर खूबसूरत रही होगी, वरना वह कभी नहीं मरता। कॉमेडियन ओमप्रकाश से भी श्याम की गहरी दोस्ती थी। उनकी मौत के बाद ओमप्रकाश ने अपने ड्राइंग रूम में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर आजीवन लगाए रखी।
लेखक, वरिष्ठ कला-साहित्य समीक्षक हैं।
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