राष्ट्रीय एकता के लिए एक समान कानून जरूरी

Uniform Civil Code

हृदयनारायण दीक्षित

समान नागरिक संहिता अपरिहार्य है। यह राष्ट्र राज्य का संवैधानिक कर्तव्य है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे आवश्यक बताया है। मोदी ने समान नागरिक संहिता को राष्ट्र की जरूरत बताते हुए कहा कि इसके नाम पर कुछ दल मुस्लिमों को भड़का रहे हैं। उन्होंने इसके विरोध पर सवाल उठाते हुए कहा कि एक घर एक परिवार में प्रत्येक सदस्य के लिए अलग-अलग कानून हों तो वह परिवार कैसे चल पाएगा ? उन्होंने याद दिलाया कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की थी। लेकिन वोटबैंक राजनीति करने वाले इसका विरोध कर रहे हैं। आखिरकार विश्वास आधारित सांप्रदायिक समूहों के लिए अलग-अलग कानून कैसे हो सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का कर्तव्य (अनुच्छेद 44) राष्ट्र राज्य को सौंपा है। समान सिविल संहिता राष्ट्रीय एकता के लिए भी अनिवार्य है। राष्ट्र राज्य का यह कर्तव्य संविधान का भाग है और महत्वपूर्ण नीति निदेशक तत्व है। अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि नीति निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं। विधि निर्माण में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। यह कर्तव्य महत्वपूर्ण है। इसे प्रवर्तित करना राष्ट्र राज्य का कर्तव्य है।

विधि आयोग ने हाल ही में समान नागरिक संहिता पर सुझाव मांगे हैं। लगभग साढ़े आठ लाख सुझाव आए हैं। विधि आयोग का यह कार्य प्रशंसनीय है। लेकिन कांग्रेस ने इसका विरोध किया है। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने इसे नरेन्द्र मोदी सरकार का ध्रुवीकरण एजेंडा बताया है। कांग्रेस की अपनी स्थाई नीति तुष्टिकरण है। ध्रुवीकरण का आरोप इसी का विस्तार है। संवैधानिक कर्तव्य को ध्रुवीकरण बताना संविधान विरोधी है। कांग्रेस दीर्घ काल तक सत्तारूढ़ रही है। उसने कर्तव्य पालन नहीं किया। उसे बताना चाहिए कि उसने समान सिविल संहिता लागू करने के संवैधानिक कर्तव्य पालन की दिशा में क्या कदम उठाए ? संहिता लागू करने में कठिनाई क्या थी ?

समान नागरिक संहिता बहुत पहले से ही राष्ट्र की वरीयता रही है। सांप्रदायिक निजी कानून, महिला अधिकारों और सशक्तिकरण में बाधा है। एक समान संहिता संविधान सभा का केन्द्रीय विचार था। संविधान के इस प्रावधान पर सभा (23 नवंबर, 1948) में तीखी बहस हुई थी। समान नागरिक संहिता के सभी पहलुओं पर विचार हुआ था। मोहम्मद इस्माइल ने कहा था कि, ‘देश में समन्वय के लिए यह अपेक्षित नहीं है कि लोगों को उनके निजी कानून छोड़ने के लिए बाध्य किया जाए।’ महमूद अली बेग ने कहा था कि, ‘हिन्दुओं में विवाह एक संस्कार होता है। यूरोप में यह स्थिति भिन्न है। मुसलमानों में कुरान के अनुसार संविदा जरूरी है। ऐसा नहीं किया जाता तो विवाह वैध नहीं होगा। मुसलमान 1350 वर्षों से इस कानून पर चलते रहे हैं। यदि विवाह की कोई अन्य प्रणाली बनाई जाए तो हम उसे मानने से इनकार कर देंगे।’ नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि, ‘प्रत्येक धार्मिक समुदाय के विशेष धार्मिक कानून व विशेष व्यवहार विषयक कानून भी होते हैं। धार्मिक विश्वासों व आचरण से उनका संबंध होता है। एक विधि बनाते समय इन धार्मिक कानूनों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। संप्रदाय विशेष के धार्मिक कानूनों को उस संप्रदाय की सहमति के बिना नहीं बदला जा सकता।’ कुछ सदस्यों ने समान नागरिक संहिता को अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अन्याय बताया।

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केएम मुंशी ने कहा कि, ‘संहिता को अल्पसंख्यकों के प्रति अन्याय बताया जा रहा है। किसी भी उन्नत मुस्लिम देश में अल्पसंख्यक जाति के निजी कानूनों को इतना अटल नहीं माना जाता कि समान नागरिक संहिता बनाने का निषेध हो। तुर्की अथवा मिस्र में किसी अल्पसंख्यक को ऐसे अधिकार नहीं दिए गए।’ कुछ हिन्दू भी समान नागरिक संहिता नहीं चाहते। उत्तराधिकार आदि के निजी कानून उनके धर्म का भाग हैं। इस तरह आप महिलाओं को समानता नहीं दे सकते।’ मुंशी ने मुसलमानों से कहा कि, ‘पूरे देश के लिए एक समान संहिता क्यों न हो ? मुस्लिम मित्र समझ लें कि जितना जल्दी हम अलगाववाद की भावना को भूल जाएंगे, उतना ही देश के लिए अच्छा होगा।’ राष्ट्र तमाम स्वतंत्र साम्प्रदायिक समूहों का जोड़ नहीं होते। अलगाववाद राष्ट्रीय एकता में बाधा है। फिर यहां पूरे देश में एक ही दण्ड विधि प्रवर्तित है।

अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने याद दिलाया कि ‘जब अंग्रेजों ने इस देश पर अधिकार किया, तब उन्होंने कहा था कि हम इस देश में एक ही आपराधिक कानून बना रहे हैं। यह सभी नागरिकों पर लागू होगा। क्या मुसलमानों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया ? वे (दण्ड कानून) कुरान के द्वारा शासित नहीं होते। वरन आंग्ल भारतीय न्याय शास्त्र द्वारा शासित है। किंतु इसपर कोई आपत्ति नहीं हुई।’ ब्रिटिश राज द्वारा बनाए गए दण्ड कानून इस्लामी शरीय से भिन्न हैं। उनका विरोध नहीं हुआ। लेकिन अपनी सर्वशक्ति संपन्न संविधान सभा द्वारा प्राविधानित समान नागरिक संहिता का विरोध जारी है। यह खेदजनक है और आश्चर्यजनक भी। 

सभा में डॉ. आंबेडकर ने कहा कि, ‘यहाँ दण्ड विधान में एक विधि है। संपत्ति हस्तांतरण कानून भी पूरे देश में लागू है। यह कहने का कोई लाभ नहीं कि मुस्लिम कानून अटल है। 1935 तक पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में शरीयत कानून नहीं था। उत्तराधिकार आदि विषयों में हिन्दू कानूनों का अनुसरण होता था। 1937 तक पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के अतिरिक्त शेष भारत में भी जैसे संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), मध्य प्रांत और बम्बई में उत्तराधिकार सम्बंधी हिन्दू कानून मुसलमानों पर लागू था।’ डॉ. आम्बेडकर ने सभी आपत्तियों का जवाब दिया। इसके बाद सभी संशोधन पराजित हो गए। समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव पारित हुआ। अनुच्छेद 44 संविधान का भाग बना। आज इसी निदेश का पालन करने की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय आवश्यकता से कानून का जन्म होता है। बेशक परंपरा और रीति रिवाज भी राष्ट्रीय उपयोगिता के अनुसार विचारणीय होते हैं। लेकिन संस्कृति राष्ट्र की धारक है। भारत जैसे विशाल देश में इसलिए विविधता के बावजूद सांस्कृतिक एकता है। इसलिए एक समान विधि जरूरी है। राष्ट्रीय एकता के लिए एक समान विधि जरूरी है। विविधता भारत की प्रकृति है और एकता भारतीय जन गण मन की अभीप्सा है। बेशक विविधता की बातें बहुत चलती हैं, लेकिन विविधता में एकता राष्ट्र की प्रकृति है।

गोवा में ईसाई पंथ मानने वालों की संख्या काफी है, लेकिन यहां समान नागरिक संहिता लागू है। सभी सम्प्रदायों के लोग मजे से रह रहे हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में विश्व के तमाम पंथिक समूहों के नागरिक रहते हैं। अमरीका में समान नागरिक संहिता लागू है। किसी भी सांप्रदायिक समूह को इससे आपत्ति नहीं है। कांग्रेस अल्पसंख्यकवाद के नाम पर मुसलमानों में भय पैदा करती है। तुष्टिकरण करती है। यह पक्षपात है कि एक समुदाय के निजी कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया है। लेकिन अन्य समुदायों को निजी कानूनों पर चलने की छूट है। महिलाओं की स्थिति दयनीय है। राष्ट्र निजी कानूनों के आग्रही सांप्रदायिक समूहों का गठजोड़ नहीं होते। राष्ट्र सभी नागरिकों में जय पराजय की समान अनुभूति और समान इतिहास बोध व समान नागरिक कानूनों से शक्तिशाली बनते हैं।

अब समान नागरिक संहिता लागू करने का यही सही समय है। इस विषय पर देश के प्रत्येक क्षेत्र से यही मांग उठ रही है। इसे अब और टाला नहीं जा सकता। साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के लिए विधि आयोग ने सुझाव मांगे हैं। समान नागरिक संहिता की मांग का स्वागत करना चाहिए।

लेखक, उप्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।

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