तत्त्वज्ञान

Kaal

प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप


(आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में दो मुख्य बाधाएँ हैं - मोह और शास्त्रीय मतभेद। गीता में आया है -

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिव्यति।

तदा गन्तासि निर्बेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

स्माधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।

2/52-53

‘जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को तर जाएगी, उसी समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा।’

‘जिस काल में शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जाएगी और परमात्मा में अचल हो जाएगी, उस काल में तू योग को प्राप्त हो जाएगा।’ अज्ञान, अविवेक को ‘मोह’ कहते हैं। अविवेक का अर्थ विवेक का अभाव नहीं है, प्रत्युत विवेक का अनादर है। अतः विवेक का आदर नहीं करना, उसको महत्व नहीं देना, उसकी तरफ ख्याल नहीं करना ‘अविवेक’ है। विवेक स्वतः सिद्ध है। विवेक ज्ञान साधन है और तत्त्वज्ञान साध्य है। जैसे साध्यरूप तत्त्वज्ञान स्वतः सिद्ध है, ऐसी ही साधनरूप विवेक ज्ञान स्वतः सिद्ध है। अज्ञान का चिह्न ‘राग’ है - रागो लिड़्गमबोधस्य चित्त्व्यायामभूमिषु। शरीर, धन-सम्पत्ति, परिवार, मान-बड़ाई आदि किसी में भी राग होना अज्ञान का, मोह का लक्षण है। जितना राग है, उतना ही मोह है, उतना ही अज्ञान है, उतनी ही मूढ़ता है, उतनी ही गलती है, उतनी ही बाधा है। इस राग के ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अनेक रूप है - श्रुतिविप्रतिपन्ना अर्थात् शास्त्रीय मतभेद। कोई कहते हैं कि अद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैत है, कोई कहते हैं कि विश्ष्टिद्वैत है, कोई कहते हैं कि शुद्धाद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैताद्वैत है, कोई कहते हैं कि अचिन्त्यभेदाभेद है - इस प्रकार अनेक मतभेद है। इन मतभेदों के कारण साधक की बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसके लिये यह निश्चय करना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन सा मत ठीक है, कौन सा मत बेठीक है - इस प्रकार मोह और शास्त्रीय मतभेद अर्थात् सांसारिक मोह और शास्त्रीय मोह - दोनों से तरने पर ही तत्त्वज्ञान का, नित्ययोग का अनुभव होता है, केवल अपने कल्याण का उद्देश्य हो और रुपये-पैसे, कुटुम्ब-परिवार आदि में कोई स्वार्थ का सम्बन्ध न हो तो हम मोहरूपी दलदल से तर गये। पुस्तकों की पढ़ाई करने का, शास्त्रों की बाते सीखने का उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्व को समझने का उद्देश्य हो तो हम श्रुतिविप्रतिपन्ना से तर गये। तात्पर्य है कि हमें न तो मोह की मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय मतभेद की मुख्यता रखनी है। किसी मत, सम्प्रदाय का भी कोई आग्रह नहीं रखना है। इतना हो जाय तो हम योग के, तत्त्वज्ञान के अधिकारी हो गये। इससे अधिक किसी अधिकार-विशेष की जरूरत नहीं है। अब इस बात पर विचार करना है कि तत्त्वज्ञान क्या है ?

तत्त्वज्ञान सबसे सरल है, सबसे सुगम है और सबके प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। तात्पर्य है कि इसको करने में, समझने में और पाने में कोई कठिनाई है ही नहीं। इसमें करना, समझना और पाना लागू होता ही नहीं। कारण कि यह नित्यप्राप्त है और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है। तत्त्वज्ञान जितना प्रत्यक्ष है, उतना प्रत्यक्ष यह संसार कभी नहीं है। तात्पर्य यह कि हमारे अनुभव में तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट आता है, उतना स्पष्ट संसार नहीं आता। इस बात को इस प्रकार समझना चाहिए। जीव अनेक योनियों में जाता है। वह कभी मनुष्य बनता है, कभी पशु-पक्षी बनता है, कभी देवता बनता है, कभी राक्षस बनता है, कभी असुर बनता है, कभी भूत-प्रेत-पिशाच बनता है, तो शरीर वही नहीं रहता, पर जीव स्वयं सत्तारूप से वही रहता है। स्वभाव वही नहीं रहा, आदत वही नहीं रही, भाषा वही नहीं रही, व्यवहार वही नहीं रहा, लोक (स्थान) वही नहीं रहा, समय वही नहीं रहा, सब कुछ बदल गया, पर स्वयं की सत्ता नहीं बदली। अगर सत्ता वही नहीं रहेगी, तो तरह-तरह के नाम तथा रूप कौन धारण करेगा ? इसलिए गीता में आया है -

भूतग्रामः स स्वायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

8/19

‘वही यह प्राणि समुदाय उत्पन्न हो-होकर लीन होता है।’

जो उत्पन्न हो-होकर लीन होता, वह शरीर है और जो वही रहता है, वह जीव का असली स्वरूप अर्थात् चिन्मय सत्ता (होनापन) है।

यह ‘आत्मज्ञान’ का वर्णन हुआ। अब ‘परमात्मज्ञान’ का वर्णन किया जाता है। सृष्टिमात्र में ‘है’ के समान कोई सार चीज है ही नहीं। लोक-परलोक, चौदह भुवन, सात द्वीप, नौ खण्ड आदि जो कुछ है, उसमें सत्ता (‘है’) एक ही है। यह सब संसार प्रतिक्षण बदलता है, इतनी तेजी से बदलता है कि इसको दो बार नहीं देख सकते। जैसे नया मकान कई वर्षों के बाद पुराना हो जाता है, तो वह प्रतिक्षण बदलता है, तभी पुराना होता है। इस प्रतिक्षण बदलने को ही भूत-भविष्य-वर्तमान, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, सत्य-त्रेता-द्वापर-कलियुग आदि नामों से कहते हैं। प्रतिक्षण बदलने पर भी यह हमें ‘है’ रूप से इसलिये दीखता है कि हमने इस बदलने वाले के उपर ‘है’ (परमात्मतत्त्व) का आरोप कर लिया है कि ‘यह है’। वास्तव में यह है नहीं, प्रत्युत ‘है’ में ही यह सब है। यह तो निरन्तर बदलता है, पर ‘है’ ज्यों-का-त्यों रहता है। ‘है’ जितना प्रत्यक्ष है, उतना यह संसार प्रत्यक्ष नहीं है। जो निरन्तर बदलता है, वह प्रत्यक्ष कहाँ है ? ‘है’ इतना प्रत्यक्ष है कि यह कभी बदलता नहीं, कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, बदलने की कभी संभावना ही नहीं। इसलिये गीता में आया है -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

2/16

‘असत् का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है।’ तात्पर्य है कि जो निरन्तर बदलता है, उसका भाव कभी नहीं हो सकता और जो कभी नहीं बदलता, उसका अभाव कभी नहीं हो सकता। ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता और ‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता। असत्् कभी विद्यमान नहीं है और ‘है’ सदा विद्यमान है। जिसका अभाव है, उसी का त्याग करना है और जिसका भाव है, उसी को प्राप्त करना है - इसके सिवाय और क्या बात हो सकती है। ‘है’ को स्वीकार करना है और ‘नहीं’ को अस्वीकार करना है - ये वेदान्त है, वेदों का खास निष्कर्ष है। जो सत्ता (‘है’) है वह ‘सत्’ है, उसका जो ज्ञान है वह ‘चित्’ (चेतन) है तथा उसमें जो दुःख, सन्ताप, विक्षेप का अत्यन्त अभाव है, वह ‘आनन्द’ है। सत् के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ आनन्द स्वतः भरा हुआ है। ज्ञान के बिना सत् जड़ है और सत् के बिना ज्ञान शून्य है। किसी भी बात का ज्ञान हो तो एक प्रसन्नता होती है - यह ज्ञान के साथ आनन्द है। परमात्मतत्त्व सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। वह सच्चिदानन्द परमात्मतत्त्व ‘है’ - रूप से सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है।

साधक को ‘सत्’ और ‘चित्’ (चेतन) की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए। सत् का स्वरूप है - सत्तामात्र और चित् का स्वरूप है - ज्ञानमात्र। उत्पत्ति का आधार होने से ‘सत्ता’ (सत्) है तथा प्रतीति का प्रकाशक होने से यह ‘ज्ञान’ (चित्) है। यह सत्ता और ज्ञान ही ‘चिन्मय सत्ता’ है, जो कि हमारा स्वरूप है। जैसे सुषुप्ति में अनुभव होता है कि ‘मैं बड़े सुख से सोया अर्थात मैं तो था ही’ - यह ‘सत्ता’ है और ‘मुझे कुछ भी पता नहीं था’ - यह ‘ज्ञान’ है। तात्पर्य है कि सुषुप्ति में अपनी सत्ता तथा अहम् के अभाव का (मुझे कुछ भी पता नहीं था - इसका) ज्ञान रहता है, जैसे आँख से सब वस्तुएँ दिखती हैं, पर आँख से आँख नहीं दिखती; अतः यह कह सकते हैं कि जिससे सब वस्तुएँ दिखती हैं, वही आँख है। ऐसे ही जिसको अहम् के भाव और अभाव का ज्ञान होता है, वही चिन्मय सत्ता (स्वरूप) है। उस चिन्मय सत्ता के अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। चित् ही बुद्धि में ज्ञान-रूप से आता है और भौतिक जगत्् में (नेत्रों के सामने) प्रकाश-रूप से आता है। बुद्धि में जानना और न जानना रहता है तथा नेत्रों के सामने प्रकाश और अंधेरा रहता है। जैसे सम्पूर्ण संसार की स्थिति एक सत्ता के अन्तर्गत है, ऐसे ही सम्पूर्ण पढ़ना, सुनना, सीखना, समझना आदि एक ज्ञान के अन्तर्गत हैं। ये सत् और चित् सबके प्रत्यक्ष हैं, किसी से छिपे हुए नहीं हैं। इनके सिवाय जो असत्् है, वह ठहरता नहीं है और जो जड़ है, वह टिकता नहीं है। सत् और चित् का अभाव कभी विद्यमान नहीं है एवं असत्् और जड़ का भाव कभी विद्यमान नहीं है। सत् और चित् सबसे पहले भी है, सबसे बाद में भी है और अभी भी ज्यों-का-त्यों है। जिनकी मान्यता है, काल की सत्ता है, उनके लिये यह कहा जाता है कि परमात्मतत्त्व भूत में भी है, भविष्य में भी है और वर्तमान में भी है। वास्तव में न तो भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान ही है, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही है। वह परमात्मतत्त्व काल का भी महाकाल है, काल का भी भक्षण करने वाला है। 

काल उसी को खाता है, जो पैदा हुआ है। जो पैदा ही नहीं हुआ उसको काल कैसे खाये ? ऐसा वह परमात्मतत्त्व जीवमात्र को नित्यप्राप्त है। उस सर्वसमर्थ परमात्मतत्त्व में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह कभी किसी से अलग हो जाय, कभी किसी को अप्राप्त हो जाय। वह नित्य-निरन्तर सबमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, नित्यप्राप्त हैं। यह ‘परमात्मज्ञान’ है।        

आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान एक ही है। कारण कि चिन्मय सत्ता एक ही है, पर जीव की उपाधि से अलग-अलग दिखती है।

भगवान कहते हैं -

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

गीता-15/7

‘इस संसार में जीव बना हुआ, आत्मा सदा से मेरा ही अंश है।’ प्रकृति के अंश ‘अहम्’ को पकड़ने के कारण ही यह जीव अंश कहलाता है। अगर यह अहम् को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है। सत्ता (होनेपन) के सिवाय सब कल्पना है। वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, आश्रय है, जीवनदाता है। उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है। वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है। सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है। सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-का-त्यों रहती है। गीता में आया है -

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।

सर्वत्रावास्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।।

13/32

‘जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता।’

तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता केवल शरीर आदि में स्थित नहीं है, प्रत्युत आकाश की तरह सम्पूर्ण शरीरों के, सृष्टिमात्र के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है।

मानवमात्र तत्त्वज्ञान का अधिकारी है; क्योंकि सत्ता में सब मनुष्य एक हो जाते हैं। क्रूर-से-क्रूर भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदि में भी वही सत्ता है और सौम्य-से-सौम्य सन्त, महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगतप्रेमी, आदि में भी वही सत्ता है। वह सत्ता परमात्मसत्ता से सदा अभिन्न है। केवल उस सत्ता के सम्मुख होना है। इसमें क्या अभ्यास है ? क्या परिश्रम है ? सत्ता में न मल है, न विक्षेप है, न आवरण है। अभ्यास तो दृढ़़ और अदृढ़ दो तरह का होता है, पर सत्ता दो तरह की होती ही नहीं। सत्ता और उसका ज्ञान होता है तो सदा दृढ़ ही होता है, अदृढ़ होता ही नहीं।

अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थिति में भी वही सत्ता है, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति में भी वही सत्ता है। जीवन में भी वही सत्ता है, मौत में भी वही सत्ता है। अमृत में भी वही सत्ता है, जहर में भी वही सत्ता है, स्वर्ग में भी वही सत्ता है, नरक में भी वही सत्ता है, रोग में भी वही सत्ता है, निरोग में भी वही सत्ता है, विद्या में भी वही सत्ता है, अविद्या में भी वही सत्ता है, ज्ञानी में भी वही सत्ता है, मूढ़ में भी वही सत्ता है, मित्र में भी वही सत्ता है, शत्रु में भी वही सत्ता है, धनी में भी वही सत्ता है, निर्धन में भी वही सत्ता है, बलवान में भी वही सत्ता है, निर्बल में भी वही सत्ता है। चिन्मय सत्ता तो वही (एक ही) है। अगर हम उस सत्ता में ही रहें तो सत्ता के सिवाय ये अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि कुछ है ही नहीं। जैसे - छोटा बालक माँ की गोदी में ही रहता है, गोदी से नीचे उतरते ही रोने लग जाता है, ऐसे ही हम उस सत्ता में ही रहें, सत्ता से नीचे उतरें ही नहीं, कभी उतर जायें तो व्याकुल हो जायें। चाहे अनुकूलता आ जाय, चाहे प्रतिकूलता आ जाय, चाहे जन्म हो जाय, चाहे मृत्यु हो जाय, चाहे निरोगता आ जाय, चाहे बीमारी आ जाय, चाहे संयोग हो जाय, चाहे वियोग हो जाय, चाहे सम्पत्ति आ जाय, चाहे विपत्ति आ जाय, चाहे मुनाफा हो जाय, चाहे घाटा हो जाय, चाहे करोड़पति हो जाय, चाहे कंगाल हो जाय। चिन्मय सत्ता में क्या फर्क पड़ता है ? सत्ता में कुछ होता है ही नहीं। उसमें न कुछ हुआ है, न कुछ हो रहा है, न कुछ होगा और न कुछ हो सकता ही है। कुछ भी होगा तो वह टिकेगा नहीं और सत्ता मिटेगी नहीं। उस सत्ता में हमारी स्थिति स्वतः है। ‘है’ में हमारी स्थिति स्वतः है और ‘नहीं’ में हमने स्थिति मानी है। मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं विद्वान हूँ, मैं मूर्ख हूँ - यह सब मानी हुई स्थिति है। वास्तव में हमारी स्थिति निरन्तर ‘है’ में है। उस ‘है’ के सिवाय किसी की भी सत्ता नहीं है। उस ‘है’ के समान विद्यमान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं।

वह सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है। वह सभी के प्रत्यक्ष है, किसी से बिल्कुल भी छिपा हुआ नहीं है। यही ब्रह्मज्ञान है, तत्त्वज्ञान है, जो ‘है’ (चिन्मय सत्ता) में स्थित है, वह तत्त्वज्ञानी है, जीवन्मुक्त है, महात्मा है। गीता में आया है -

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यस्त्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।

13/27

‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है (‘नहीं’ को न देखकर केवल ‘है’ को देखता है), वही वास्तव में सही देखता है।’

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

13/28

‘क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने-आप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिए वह परमगति को प्राप्त हो जाता है।’

About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’  and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.

In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.

Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.

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