‘सरहुल पर्व का भी अब राजनीतिकरण हो गया है’

Sarhul

जनजातीय समुदाय के सबसे बड़े त्योहार सरहुल पहले धार्मिक के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व था, लेकिन अब इसका भी राजनीतिकरण हो गया है। लोग अलग-अलग समूह बनाकर अलग-अलग दिनों में सरहुल मना रहे हैं। पहले खूंटी में एक ही दिन सामूहिक रूप से सरहुल मनाया जाता था, लेकिन अब न वो सामाजिक एकता रही और न ही पुरानी परंपरा। ये बातें लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष पद्मभूषण कड़िया मुंडा ने कही।

Kariya Munda
खूंटी संसदीय क्षेत्र से आठ बार सांसद रहे पद्मभूषण कड़िया मुंडा ने कहा कि हर गांव में अलग-अलग दिनों में सरहुल मनाया जाता है। सरना धर्म की परंपरा रही है कि जिस गांव में सरहुल संपन्न नहीं हुआ है, उस गांव में सखुआ या सरई के फूल को ले जाने की मनाही थी। गांव में सरहुल होने के बाद ही कोई व्यक्ति इस फूल को लेकर जा सकता है। इसीलिए खूंटी के सीमावर्ती गांवों में सरहुल मनाने के बाद अंतिम में खूंटी में सामूहिक रूप से सरहुल मनाया जाता था, ताकि सभी गांवों के लोग मुख्य कार्यक्रम में शामिल हो सकें।

यदि किसी गांव में सरहुल नहीं मनाया गया है, तो उस गांव के लोग खूंटी के सरहुल में शामिल नहीं हो सकते थे, लेकिन अब लोग खूंटी में दो दिन सरहुल मनाने लगे हैं। कड़िया मुंडा ने कहा कि कुछ लोग 24 मार्च को ही खूंटी में सरहुल मनाएंगे, जबकि पहले की परंपरा के अनुसार इस वर्ष छह अप्रैल को खूंटी में सामूहिक रूप से सरहुन मनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि पर्व-त्योहारों का इस तरह राजनीतिकरण कर कुछ लोग आदिवासियों की एकता को गंभीर चोट पहुंचा रहे हैं और सामाजिक एकता को नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अपनी संस्कृति, परंपरा, धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने वाले लोग भी अब दिखावे के लिए कानों में औेर अपने घरों में सखुआ या सरई का फूल लगाने लगे हैं।

पद्मभूषण कडिष मुंडा ने कहा कि सरहुल का त्योहार सूर्य और पृथ्वी की शादी का पर्व है। इसीलिए गांव के पाहन और उसकी पत्नी को नया वस्त्र, नया घड़ा आदि देने की परंपरा है। कड़िया मुंडा ने कहा कि सरहुल के बाद ही किसान खेतों में धान बुनने का काम शुरू करते हैं अर्थात सूर्य और पृथ्वी की शादी होने के बाद ही खेती-किसानी का काम शुरू होता है।

पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष ने कहा कि अब तो ईसाई धर्म अपना चुके लोगों को भी पड़हा राजा बनाया जा रहा है, जो पूरी तरह गलत और असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि रुढ़िवादी परंपरा को मानने वालों को ही पड़हा राजा का पद दिया जा सकता है और उसकी पगड़ी बांधी जा सकती है, लेकिन जन जनजातियों की परंपरा और संस्कृति को छोड़कर ईसाई बन चुके लोग पड़हा राजा बन रहे हैं। यह जनजातीय परंपरा के लिए ठीक संकेत नहीं है।

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