आर.के. सिन्हा
आप जब इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तब देश की राजधानी में विश्व पुस्तक मेला शुरू हो चुका होगा। कोरोना के कारण विश्व पुस्तक मेला बीते कुछ सालों से आयोजित नहीं हो पा रहा था। जाहिर है कि पुस्तक मेले के फिर से आयोजन से शब्दों के शैदाइयों के चेहरे खिले हुए हैं। वे अपनी मनपसंद किताबें सस्ते दामों पर खरीदेंगे। पर ये भी सच है कि इस डिजिटल दौर में किताबों से पाठकों की दूरियां निश्चित रूप से बढ़ी है। बहुत बड़ी संख्या में पाठक अपने मोबाइल पर ही अपनी दिलचस्पी की सामग्री पढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं। वे किताबें खरीदने की जरूरत ही नहीं महसूस करते। बेशक, किताबों को फिर से प्रासंगिक तो बनाना ही होगा। वह कितना अज्ञानी समाज होता है जहां पर किताबों के महत्व को सही ढंग से नहीं समझा जाता।
आमतौर पर हमारे यहां कहानी, कविता, उपन्यास, जीवनी से जुड़ी किताबें बहुतायत में छपती हैं। हिंदी पट्टी के प्रकाशकों को लेकर यह बात सौ फीसद यकीन के साथ कही जा सकती है। इस स्थिति से निकलने की जरूरत है। अब मैनेजमेंट और कारपोरेट दुनिया की भी किताबें आने लगी हैं। पर विज्ञान, आर्किटेक्चर, मूर्तिकला, संगीत, नाटक जैसे विषयों की किताबों का नितांत अभाव ही मिलता है। आप किसी भी किताबों की दुकान का चक्कर लगा लीजिए। आपको आर्किटेक्चर की एक किताब नहीं मिलेगी।
सारा देश जानता है कि सतीश गुजराल प्रख्यात चित्रकार और भित्ति चित्रकार थे। पर कितने लोगों को पता है कि वे एक प्रयोगधर्मी आर्किटेक्ट भी थे। उन्होंने राजधानी में बेल्जियम एंबेसी को डिजाइन किया था। इसे डिजाइन के लिहाज से अप्रतिम इमारत माना जाता है। पर चूंकि हिंदी में कोई आर्किटेक्चर की किताब ही नहीं मिलेगी, तो हिंदी पाठकों को कैसे पता चलेगा कि सतीश गुजराल कौन थे या भारत के सबसे विशाल मंदिरों में से एक राजधानी के अक्षरधाम मंदिर का डिजाइन करने वाले आर्किटेक्ट कौन थे?
अक्षरधाम मंदिर को बिहार में जन्में आर्किटेक्ट विक्रम लाल ने डिजाइन किया था। इनके पिता जे.के. लाल भी महान स्ट्रक्चरल इंजीनियर थे। मेरे पटना आवास अन्नपूर्णा भवन को भी इन्हीं दोनों बाप-बेटे ने डिजाइन किया था। आपको मूर्तिशिल्प और मूर्तिशिल्पियों पर हिंदी में शायद ही कोई किताब मिले। इस लिहाज से हिंदी और अन्य भाषाओं में भी बेहद खराब स्थिति है। राम सुतार के बारे में हिंदी में कितनी किताबें हैं? राम सुतार गुजरे सात-साढ़े सात दशकों से मूर्तियां बना रहे हैं। उन्होंने ही सरदार पटेल की चर्चित प्रतिमा ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ भी तैयार की। राम सुतार की तराशी प्रतिमाओं में गति व भाव का शानदार समन्वय रहता है। पर, उन पर आपको कोई किताब नहीं मिलेगी। राम सुतार निःसंदेह आधुनिक भारतीय मूर्ति कला के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक माने जाएंगे।
अब महान मूर्तिकार देवी प्रसाद राय चौधरी की भी बात हो जाए। उनकी अतुलनीय कृति है राजधानी में लगी ’ग्यारह मूर्ति’। यह राष्ट्रपति भवन के ठीक बगल में है। कौन सा बिहारी होगा जिसने पटना में आने पर शहीद स्मारक को नहीं देखा होगा। इसे भी चौधरी ने ही बनाया था। शहीद स्मारक सात शहीदों की एक जीवन-आकार की मूर्ति है, जो पटना में बिहार विधान सभा भवन के बाहर स्थित है। इन युवाओं ने भारत छोड़ो आन्दोलन (अगस्त 1942) में अपने जीवन का बलिदान दिया था और उस भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया था, जो अब सचिवालय भवन है।
चौधरी की इस मूरत को देखकर आंखें नम होने लगती हैं। सदाशिव साठे ने देश के कई शहरों में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की कमाल की मूर्तियां बनाई हैं। इन अश्वारोही प्रतिमाओं को न जाने कितने लाखों लोगों ने मुग्ध होकर निहारा होगा। रानी का घोड़ा दो पैरों पर खड़ा है। हवा में प्रतिमा तभी रहेगी, जब संतुलन के लिए पूंछ को मजबूत छड़ से गाड़ दिया जाए, यह बात इसे बनाने वाले मूर्तिकार सदाशिव साठे समझते थे। वे अश्वारोही प्रतिमाएं गढ़ने में सिद्धहस्त थे। पर इन पर भी आपको कोई किताब नहीं मिलेगी। इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या हो सकती है। हिंदी के लेखकों को इस बाबत पहल करनी चाहिए। वे आगे आएं और गहन शोध करने के बाद स्तरीय किताबें भी लिखें तो बात बने।
हिंदी समाज देश का आबादी के लिहाज से सबसे विशाल समाज है। इस बारे में कोई शक नहीं हो सकता। इसके साथ बहुत बड़ी समस्या ये है कि यहां पर किताबें मांगने का भयंकर रोग है। यहां का पाठक लेखक से आग्रह करता रहता है कि वह उसे किताबें भेंट कर दे। अब इन महान पाठकों से पूछिए कि आखिर लेखक कहां से किताब भेंट करेगा? क्या उसके पास बहुत पैसा होता है? क्या उसे प्रकाशक से बहुत भारी-भरकम रायल्टी मिलती है?
कुछ समय पहले दिल्ली के लैंडमार्क ‘कनॉट प्लेस’ पर शोध किताब लिखने वाले लेखक विवेक शुक्ला मुझे बता रहे थे कि उन्होंने जैसे ही अपनी किताब के संबंध में सोशल मीडिया में जानकारी दी, बस तब से ही उनसे तमाम लोग गुजारिश करने लगे कि उन्हें किताब भेंट में मिल जाए। हालांकि उन्होंने अपनी कार को बेचकर मिले पैसे से किताब को लिखने के लिए शोध किया था। इस तरह की गुजारिश करने वालों में वे भी हैं, जो हर माह दो-तीन लाख रुपया कमाते हैं। मतलब साफ है कि हिंदी पट्टी में लेखक बनना सच में कठिन काम है। मुझे कभी-कभी लगता है कि चूंकि लेखकों को कायदे की रायल्टी नहीं मिलती है, इसलिए बहुत से लेखक कोई बड़ा काम करने का साहस ही नहीं जुटा पाते।
आखिर किताब लिखने के क्रम में जो शोध करना पड़ता है उसमें मोटा खर्चा अपनी जेब से करना होता है। तो सीधी सी बात है कि कोई लेखक सिर्फ स्वांतः सुखाय के लिए क्यों लिखेगा। वह भी एक-दो प्रयासों के बाद बैठ जाता है। मैं मानता हूं कि किताबें अब भी बहुत सस्ती हैं। आपको 200 से 500 रुपये तक बहुत श्रेष्ठ किताब मिल जाती है। क्या इतनी सस्ती किताब भी पाठक वर्ग द्वारा नहीं खरीदी जा सकती? हरेक हिंदी भाषी परिवार को हर माह 500 रुपये तक की तो किताबें खरीदनी ही चाहिए। इतनी छोटी राशि को खर्च करके वे अपने तथा अपने परिवार को कितना समृद्ध कर लेंगे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी समाज तमिल, मलयाली, मराठी और बांगला समाज से ही कुछ प्रेरणा ले। ये सब खूब किताबें पढ़ते और खरीदते भी हैं।
लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।
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