गुरु की महिमा का वर्णन - 1

Adhyatma

प्रोफेसर डॉक्टर विपिन बिहारी स्वरूप 

भगवान शिव ही उस परमतत्त्व व ब्रह्म के पूर्ण ज्ञाता हैं तथा उसका ज्ञान देने में वे ही समर्थ हैं। वे स्वयं ध्यानमग्न होकर उसी ब्रह्म का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। वे बार-बार उन्हीं को नमस्कार करते हैं। उन्हें बार-बार नमस्कार करते हुए देखकर पार्वती को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा उनसे पूछा। 

इस सम्पूर्ण जगत् में भगवान शिव ही एकमात्र ऐसे ज्ञानी हैं जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। वे देवों के भी देव महादेव हैं, श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठ हैं तथा स्वयं जगद्गुरु हैं जिससे समस्त देव, दानव और मानव उन्हीं को प्रणाम एवं वन्दना करते हैं। ऐसा पार्वती ने उनसे कहकर एक प्रश्न किया।

शिवजी को बार-बार नमस्कार करते देखकर पार्वती ने सहज भाव से उनसे प्रश्न किया कि हे भगवान ! आप देवाधिदेव हैं। आप से बड़ा इस सृष्टि में कोई नहीं है। ये समस्त देवगण ऋषि-मुनि यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करने वाला है, स्वयं भगवान विष्णु जो इस सृष्टि का पालनकर्ता है तथा देवताओं का राजा इन्द्र भी आपको नमस्कार करते हैं। सचमुच आप इन सबमें श्रेष्ठ होने के कारण आप इस नमस्कार को स्वीकार करने योग्य हैं। फिर आप किसको नमस्कार कर रहे हैं ? आपसे बड़ा कौन है जिनको आप नमस्कार कर रहे हैं ? कृपया बताइए। पार्वती फिर कहती हैं कि आप तो स्वयं भगवत् स्वरूप हैं, सभी धर्मों के पूर्ण ज्ञाता हैं, यहाँ तक कि धर्म की स्थापना करने वाले भी आप स्वयं हैं, आप सर्वशक्तिमान हैं, फिर आपका यह कौन-सा नियम है, कौन-सा व्रत है जिसके अनुसार आप किसी को नमस्कार करते हैं। यदि आपसे भी कोई श्रेष्ठ है तथा आपका भी कोई गुरु है जिसको नमस्कार करने का आपने व्रत ले रखा है तो कृपा करके ऐसे उत्तम गुरु को महात्म्य मुझे बताइए जिससे मेरी शंका का निवारण हो सके। मैं उस गुरु की महिमा जानना चाहती हूँ।

पार्वती की जिज्ञासा से ही भगवान शिव ने गुरु की महिमा का उनके सामने वर्णन किया। इस संसार में गुरु की क्या महिमा है ? कौन गुरु होता है ? गुरु का क्या कर्तव्य है, शिष्य कैसा होना चाहिए ? किसको उपदेश देना व किसको नहीं देना ? कौन सद्गुरु हो सकता है ? आदि अनके रहस्यों को भगवान शिव ने पार्वती को बताए।

ज्ञान का प्रदाता गुरु ही होता है, इसलिए गुरु की महिमा अपार है। श्री महादेव जी पार्वती से कहते हैं कि यह रहस्यों का भी रहस्य है, जिसे सर्व सामान्य के सामने प्रकट नहीं किया जा सकता। गुड़ का स्वाद खाने वाला ही जान सकता है, इसलिए गुरु के माध्यम से जिसे ज्ञान हुआ है, वही उसकी महिमा का वर्णन कर सकता है, अन्य अज्ञानी जन इसके महत्व को नहीं समझ सकते, इसलिए उसके महत्व एवं महिमा का वर्णन करना उचित भी नहीं है। इस रहस्य को मैंने पहले भी किसी से नहीं कहा है। ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की अनिवार्यता है, इसलिए जो ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा करता है, उसके लिए इसका महत्व जानना आवश्यक है। इसी कारण हे पार्वती ! तुम्हारी भक्ति देखकर मैं इस रहस्य को तुम्हारे सामने प्रकट कर रहा हूँ। महादेव जी कहते है, हे देवी ! तुम मेरा ही स्वरूप हो। यदि मैं शिव हूँ तो तुम मेरी शक्तिरूपा हो। शिव और शक्ति सदा से अभिन्न रहे हैं। शक्ति के बिना शिव भी शव रूप ही है तथा शिव के बिना शक्ति क्रियाहीन है। तुम्हारा और मेरा अनादि सम्बन्ध है। तुम मुझ शिव का ही स्वरूप हो, इसलिए इस रहस्य को मैं केवल तुमसे कहता हूँ। तुम्हारा यह प्रश्न लोक के लिए भी कल्याणकारक सिद्ध होगा, ऐसा मानकर मैं इस गुरु की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ।

भगवान शिव फिर कहते है कि ज्ञानार्थी शिष्य में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा व भक्ति का होना आवश्यक है। यह भक्ति ऐसी होनी चाहिए जैसी उस परात्पर ब्रह्म अथवा ईश्वर के प्रति होती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति ही एकमात्र साधन है, किन्तु उस भक्ति का रहस्य तो कोई ज्ञानी गुरु ही बता सकता है जिसने स्वयं ईश्वर को प्राप्त किया है। अन्य कोई भी इस रहस्य को नहीं बता सकता। इसलिए गुरु की महिमा ही सर्वविदित है। श्रद्धा एवं भक्ति से रहित पुरुष को दिया गया यह उपदेश व्यर्थ ही सिद्ध होता है। जो व्यक्ति गुरु और ईश्वर में भेद देखता है, जो उसे शरीरधारी मनुष्य ही समझता है, उसको गुरु की महिमा का ज्ञान नहीं हो सकता है। जीव को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताने वाला केवल गुरु ही होता है, इसलिए गुरु का महत्व ईश्वर से भी बढ़कर हो जाता है।

कबीर दास जी के शब्दों में -

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाँव।

बलिहारी गुरू आपकी, गोविन्द दियो बताय।।

यह गुरु भक्ति कैसी होनी चाहिए, इसका वर्णन भगवान शिव करते हुए कहते है कि यदि किसी में ऐसी भक्ति नहीं है तो उसे इसकी महिमा समझ में नहीं आएगी। भक्तियुक्त महात्मा ही इसके रहस्य को समझ सकते हैं। गुरु वही होता है जो तत्त्वज्ञानी है, जो ईश्वरत्व को प्राप्त हो चुका है, जिसे आत्मज्ञान हो चुका हैं, ईश्वर का साक्षात्कार हो चुका है। ऐसा गुरु शिव तुल्य (ईश्वर तुल्य) ही है तथा जो शिव है वही गुरु रूप है। दोनों में अभेद सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फिर द्वैत भाव ही समाप्त हो जाता है। ऐसा गुरु सभी प्रकार की सांसारिक कामनाओं, वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि का पूर्णतया त्याग कर देता है, जो केवल अपनी आत्मा में ही स्थित रह कर उसी से संतुष्ट रहता है तथा उसी में रमण करता है, वही सच्चा गुरु हो सकता है। ईश्वर और गुरु में अभेद की प्रतीति ही गुरुत्व का एकमात्र लक्षण है। ईश्वर ऐसे ज्ञानी - गुरु व ईश्वर (शिव) में जो अन्तर देखकर व्यवहार करता है, उसे कभी भी गुरु-कृपा का प्रसाद नहीं मिल सकता। यहाँ तक की वह घोर पापी है, जिसे गुरु-पत्नी गमन करने के समान ही पापी माना जाता है। ऐसा व्यक्ति न ज्ञान का ही अधिकारी है, न उसे कभी ज्ञान प्राप्त हो सकता है। ऐसे कुपात्र शिष्य को ज्ञान देने का भी शास्त्रों में निषेद किया गया है।

भगवान शिव आगे फिर पार्वती से कहते हैं कि हे प्रिये ! वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि पुस्तकें तो सभी पढ़ लेते हैं, किन्तु उनका वास्तविक अर्थ व तात्पर्य तथा उनमें छिपे गुढ़ रहस्यों को तो कोई ज्ञानी गुरु ही समझा सकता है। यदि पुस्तकें पढ़कर ही कोई ज्ञानी बन जाता, तो इस संसार में सभी प्रकार की पुस्तकें विद्यमान हैं, उन्हें पढ़कर सभी ज्ञानी बन जाते, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। पुस्तकों में तो कई प्रकार की विद्याएँ हैं, कई प्रकार के मन्त्र हैं, जैसे भूत-प्रेतों के मन्त्र हैं, सिद्धियों के मन्त्र हैं, कामनापूर्ति के मन्त्र हैं, मनःसिद्धि के मन्त्र हैं, मारण, मोहन, उच्चाटन के मन्त्र हैं, कई प्रकार के यन्त्र हैं जिनकी लोग पूजा करते हैं, प्रेतों को वश में करने के मन्त्र हैं, मूठ, टोना, टोटका के मन्त्र हैं, तान्त्रिक विद्या की अलग विधियाँ हैं। इनके साथ ही शैव, शाक्त, आगम और अन्य कई प्रकार के मतमतान्तर भी हैं, जिन्होंने विभिन्न विधियों पर अनेकों प्रयोग किए हैं। योग साधना में भी हठयोग, राजयोग, कुण्डलिनीयोग, प्राणायाम आदि कई प्रकार की विधियाँ भारत में खोजी गई हैं व उन पर सफल प्रयोग भी किए गए हैं, किन्तु ये सब विद्याएँ गुरु से ही सीखनी पड़ती हैं जो इनका पूर्ण ज्ञाता हो। मात्र पुस्तकें पढ़कर इन पर प्रयोग नहीं किया जा सकता। फिर ये सभी विद्याएँ आत्मज्ञान की हेतु नहीं है। इनसे न तो ईश्वर प्राप्ति होती है, न शान्ति ही मिलती है। शान्ति तो एकमात्र ईश्वर प्राप्ति से ही मिलती है। इसलिए उसी के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो भ्रान्तचित्त वाले बिना गुरु के इन विद्याओं को मात्र पुस्तकें पढ़कर प्रयोग करते हैं, वे पथभ्रष्ट ही होते हैं व कई तो पागल होकर घूमते ही रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखनी चाहिए तभी उसके सद्परिणाम आते हैं। इसी प्रकार जप, तप, तीर्थ, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन आवश्यक है कि इनकी विधि क्या है ? अविधिपूर्वक किए गए ये सभी कर्म व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। पाखण्ड पूर्वक व स्वयं की अहंकार की तृप्ति के लिए किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य की अधोगति का कारण बन जाते हैं। कई अज्ञानीजन गुरु के महत्व को न समझकर इसी प्रकार के कर्म करते रहते हैं, जिनके लिए भगवान शिव यह स्पष्ट निर्देश दे रहे हैं कि बिना गुरु के किसी का कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। इसलिए गुरु तत्त्व को जानना अति आवश्यक है। हठयोग, प्राणायाम आदि क्रियाएँ बिना गुरु के करने पर शरीर रोगग्रस्त हो सकता है। कई क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनसे सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जिनका दुरूपयोग करने पर मनुष्य को उन कर्मां का फल अवश्य भोगना पड़ता है तथा ये सिद्धियाँ आत्मज्ञान में भी बाधक बन जाती हैं। दक्ष गुरु से इन विद्याओं को सीखने पर सर्वप्रथम वह उसकी पात्रता की परीक्षा करता है। यम नियम का पालन करा कर उसकी चित्त शुद्धि कराता है, फिर वह उसकी कठिन परीक्षा लेकर ही गुरु विद्या का उपदेश देता है, जिससे उसके सद्परिणाम ही सामने आते हैं। प्रश्नोपनिषद् में उल्लेख है कि एक बार छः ऋषि पिप्पलाद महर्षि के पास ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा से आए तथा वे अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को जानना चाहते थे। पिप्पलाद ने सर्वप्रथम उन्हें एक वर्ष तक आश्रम में रखा व उन्हें नियम संयमपूर्वक रहने को कहा, जिससे उनकी चित्त शुद्धि हो जाय। चित्त शुद्धि होने पर ही उनको तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया। गुरु की अनिवार्यता इसलिए भी है कि वह शिष्य को पूर्ण नियम संयम व मर्यादा पालन का उपदेश देता है, फिर गूढ़ रहस्यमय ज्ञान देता है। कर्म चाहे कैसा भी हो, सांसारिक कर्म हो अथवा अध्यात्मज्ञान, गुरु की अनिवार्यता सर्वसिद्ध है। बिना गुरु के जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है अथवा कर्म किया जाता है, उसके कभी भी अच्छे परिणाम नहीं आ सकते। वह भटकता ही रहता है। उसे उचित दिशा निर्देश नहीं मिल सकता। बिना गुरु के जो स्वयं अपनी इच्छानुसार चलता हैं, जो किसी नियम, संयम, मर्यादा को स्वीकार नहीं करता उसे ‘निगुरा’ कहा जाता है, जो जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता। जीवन में वैसे माता-पिता से लेकर शिक्षक तथा हर कार्य को सीखने के लिए गुरु की अनिवार्यता है, किन्तु अध्यात्मज्ञान की प्राप्ति के लिए तो गुरु की अनिवार्यता है ही। इसके बिना अध्यात्मज्ञान हो ही नहीं सकता, यह निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए।

इस सम्पूर्ण सृष्टि में जो चेतना शक्ति है, वही ज्ञान स्वरूप है। जड़ पदार्थ में ज्ञान का अभाव होता है। इस चेतना शक्ति का मूल कारण वह ब्रह्म है, जिसे ‘परमगुरु’ कहा जाता है। ईश्वर भी उसी का सगुण रूप है तथा आत्मा उसी चेतन शक्ति का अंश है। इसलिए यह आत्मा ही मनुष्य का एकमात्र सद्गुरु है। उसके ज्ञान से सृष्टि के सम्पूर्ण रहस्यों को जाना जा सकता है। 

भगवान शिव कहते है, हे पार्वती ! इस चैतन्य स्वरूप आत्मा में ही मनुष्य को गुरु बुद्धि रखनी चाहिए। इसके ज्ञान से ही मनुष्य इस भवसागर से पार हो सकता है। यह निर्विवाद सत्य है। अन्य गुरु तो इसको जानने में सहायता मात्र करते हैं। सच्चा ज्ञान तो आत्मज्ञान से ही मिलता है। इसलिए आत्मा में ही गुरु-बुद्धि रखनी चाहिए तथा बुद्धिमानों को आत्मज्ञान प्राप्त करने का ही प्रयत्न करना चाहिए। आत्मज्ञान कराने वाले गुरु का भी आत्मज्ञान होने पर त्याग कर देना चाहिए, अन्यथा वह भी बन्धन का कारण बन जाता है। वह भी माध्यम मात्र है। आत्मा और ईश्वर भी माध्यम मात्र है। मोक्ष की स्थिति में इनका भी त्याग कर देना उचित है, तभी यह जीवात्मा निर्गुण अवस्था को प्राप्त कर सकती है। सगुण मात्र निर्गुण का माध्यम बनते हैं। अन्तिम अवस्था तो निर्गुण ही है। रामकृष्ण के गुरु तोतापुरी ने निर्गुण अवस्था को प्राप्त करने के लिए रामकृष्ण से काली माँ का भी त्याग करवाया था।

About the writer : Professor Dr. Bipin Bihari Swaroopa is the University professor of Chemistry (Retired). He has a deep interest in spirituality. This is the reason that the priceless nectarine that he obtained by churning from the ocean of the spitiruality in the last 40 years, has now come to you in the form of a book. After ‘Atma Gyan’, ‘Ishwar Darshan Kaise’  and ‘Mrityu, Parlok aur Punarjanma’ (All in Hindi), this is his fourth book.

In 1980 Professor Bipin Bihari Swaroopa was awarded Ph.D., in Chemistry by Patna University under the guidance of international renowned Professor of Patna University, Dr. J.N. Chatterjee D.Sc., F.N.A. Dr. Swaroopa’s research papers have been published in top journals of India, Germany and America. He synthesized more than hundred new organic compounds. Some of his compounds were found to be biological active. One of his compounds (Alkaloid of Harman series) was reported to be useful as a drug for central nervous system with no side effect. Some of his researches have been included by UGC Delhi in the syllabus of M.Sc.

Apart from chemistry, even in the field of spirituality he memorizes the entire Bhagwadgita and the divine Sahasranama and recites it every day in the early morning 3 am to 6 am (Brahmamuhurta). His all the four books will prove to be a milestone in the world of spirituality, it is my complete belief. Along with this, it can also help you in building a clean society.

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