साहित्यकार का कल्याणकारी दायित्व

‘नये पल्लव 13’ से

राजू गजभिये
विचारों का प्रवाह साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण है। आज भी संपूर्ण जन सत्य के लिए साहित्य को ही अग्रणी मानते हैं। परंतु इंटरनेट क्रांति के युग में अपना ज्यादा समय नेट का डाटा खर्च करने में ही लगाते हैं। सभी पर बाजारवाद हावी है। सभी के अपने-अपने विचार हैं, लेकिन साहित्य में विचारों की ज्योति सत्य की राह पर अंधकार को मिटाते हुए दिव्य-ज्योति के समान सतत जलती रहे, सभी में हमेशा कल्याणकारी भावना रहे और साहित्य का अस्तित्व हमेशा बना रहे, यह प्रयास रहना चाहिए।
कोरोना संक्रमण काल में चहुंओर निराशावादी वातावरण हो गया है। सबकुछ थम-सा गया है। लोगों में भय के साथ अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा व बचाव की फिक्र है। इन सबके बीच मीडिया एवं सोशल मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में आधी-अधूरी जानकारी से समाज का नुकसान भी हुआ है। वहीं अपराध का ग्राफ भी बढ़ा है।
सबसे महत्वपूर्ण व ईमानदार दृष्टिकोण एक अच्छा साहित्यकार ही अपना सकता है। वह सभी के लिए कल्याणकारी भावना व शुद्ध अंतःकरण से कहता है - हे ईश्वर ! सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करना, उसके बाद मेरी करना। सच्चा साहित्यकार हरेक घटनाओं पर अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज व शासन की करतूतों पर अंकुश लगाता है। हर मुद्दों पर खुलकर बात करता है। दूसरी तरफ कोरोना संक्रमण काल में भी कई लोग दूसरों को लूटते देखे गए। वहीं चाटुकार पूंजीपतियों के दरबार में प्रशंसा पाने में या फिर प्रशंसा-पत्र, शाल, श्रीफल पाने, माला पहनने, फोटो खींचवाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करने में खुद को धन्य समझता है। लेकिन आज भी ब्रह्म-शब्द वाले लोग व शुद्ध अंतःकरण वाले साहित्यकारों की धमक है। वह साहस व निडरता से आवाज उठाता है, इसलिए सभी जगह अपना अलग प्रभाव छोड़ता है।
साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है। साहित्यकार का कर्म है, वह ऐसे साहित्य का सृजन करे, जो राष्ट्रीय एकता, समानता, विश्व-बंधुत्व और सद्भाव के साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे। साहित्य का आधार ही जीवन है।
साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ लिए बिना कुछ रच ही नहीं सकता, क्योंकि सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज की अस्मिता की पहचान है। साहित्य जबतक समाज के लिए उपयोगी है, तभी तक ग्राह्य है। साहित्य की उपादेयता में ही साहित्य की प्रासंगिकता है। साहित्यकार के अंतस में युग-चेतना होती है और यही चेतना साहित्य सृजन का आधार बनती है। श्रेष्ठ साहित्य भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति और समाज को संस्कारित करता है। उसका युग-चेतना से साक्षात्कार करवाता है।
अब प्रश्न उठता है कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है ? साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है ? क्या आत्मसंतुष्टि अथवा सुखानुभूति या प्रेरणा या संदेश या जागृति ? संवेदना ही ऐसी चीज है, जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। संवेदनहीन साहित्य समाज को कभी प्रभावित नहीं कर सकता और वह मात्र मनोरंजन कर सकता है। सिर्फ मनोरंजन द्वारा ही साहित्य को जीवित रखना संभव नहीं है।
साहित्य और समाज का गहरा संबंध है। कल्याणकारी साहित्यकार ईश्वरीय रुप से शुद्ध अंतःकरण का शिल्पी होता है। वह अपने सकारात्मक विचारों से साहित्य का सृजन कर जीवन मूल्यों तथा सामाजिक दायित्वों के प्रति मानवीय आस्था स्थापित कर सकता है।
आज समाज में काफी विसंगतियां हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों का विघटन दिखाई देता है। हर व्यक्ति कुंठित है। सामाजिक जीवन में विसंगतियों का स्वर गुस्से के रुप में उजागर हो रहा है। ऐसा क्यों है ? यह सोचने का समय किसी के पास नहीं है।
सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में इसका मूल कारण है - साहित्य का समाज के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में संदेह का होना। संसार में होनेवाले सामाजिक परिवर्तनों में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। रूसी क्रांति में वहां के साम्यवादी साहित्य तथा विचारों की देन थी। वहीं कबीर की वाणी ने हताश व निराश व्यक्तियों में प्राणों का संचार किया। तुलसीदास के मानस ने भी काफी प्रभावित किया।
भारतेन्दु युग के साहित्य में सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रमुख था। भारतेन्दु के साहित्य ने नैतिकता का शंख फूंका और साहित्य की आत्मा को राजदरबार से निकालकर समाज एवं जीवन के व्यापक धरातल से जोड़ा। साहित्य व राजनीति, दोनों, के मिश्रित रूप भी इस काल में देखने को मिलते हैं। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों के विरूद्ध आवाज उठाना अपना महत्वपूर्ण कार्य समझा। रूढ़िवादी होने से सामाजिक प्रगति में रुकावट आती है। उस दौर में प्रचलित कुरीति, धार्मिक मिथ्याचार, छल-कपट, पूंजीपतियों के स्वार्थ, पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे शिक्षित वर्ग के अंधानुकरण की प्रवृत्ति, अंग्रेजी शासन के शोषण, आदि के विरूद्ध जागरूकता का साहित्य पढ़ने को मिलता है। द्विवेदी युग में भी साहित्य के राष्ट्रीय एवं सामाजिक दायित्वों का आकलन हुआ है। देशभक्ति और मानवतावादी विचारधारा इस काल की विशेष देन रही। पौराणिक आख्यानों व काल्पनिक कथाओं को आधार मानकर साहित्य सृजन किया गया। इसके बावजूद आदर्शवादियों ने नैतिकता व उपयोगिता को सामूहिक चेतना का आधार मानकर उस काल में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उग्र एवं यशपाल जैसे रचनाकारों की कहानियां भी सरस्वती, चांद, माधुरी आदि में उसी सूरत में छप जाती थीं। काम भावना के मामले में प्रेमचन्द स्वयं कठोर थे। कालांतर में प्रगतिशील आंदोलन के समय इस दिशा में एक नया मोड़ आया और राजनीति में महात्मा गांधी के पदार्पण ने भी साहित्य को एक नई दिशा दी। बाद में पूंजीवादियों और सियासतदानों ने मिलकर इसे एक ‘जिंस’ बना दिया।


पैसा व सत्ता ने बुद्धिजीवीयों को खरीदना शुरू किया। दोनों ने मिलकर व्यावसायिक लेखकों की एक ऐसी जमात पैदा कर दी, जिससे साहित्य देह-गाथा और अपराध के नाम होकर रह गया। यथार्थवाद के नाम पर तीखी और तली हुई वासनाग्रस्त चीजें साहित्य के नाम पर पाठकों को परोसी जाने लगीं। यहीं से खतरा पैदा हो गया। अब पाठकों को सबसे ज्यादा कामुक, अश्लील, नैतिक-अनैतिक जैसे द्वंद्व विसंगत लगने लगे हैं। नैतिकता घटने लगी, गांधी-युग के मूल्य ध्वस्त होने लगे हैं। प्रगतिशील साहित्यकार इसे शुभ संकेत मान रहे हैं। परंतु प्रश्न है कि जीवन में व्याप्त भटकाव, ऊब और परेशानी के नाम पर रेखांकित साहित्य अपने आसपास की जिंदगी के भीतरी दुर्गंध को कबतक छिपा सकेगा ? समय की क्रूरता और विसंगतियों से साक्षात्कार कब करेगा ? सामाजिक चेतना को जागृत करने में वह किस प्रकार अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकेगा ? साहित्य और समाज के संबंध को लेकर यही एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस प्रकार का लेखन सामाजिक विघटन को बढ़ावा नहीं दे रहा ? 
सातवें दशक तक तो राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में व्याप्त चेतना की धुंध और निराशा के बीच व्यक्ति का जीवन निष्क्रिय-सा लगने लगा ...  और दूसरा खतरा भी तैयार हो गया। साहित्य में यौन व अपराध का जबरदस्त समावेश हो गया। पाठकों की रुचि भी विकृत होती जा रही है। युवा-युवती में भौतिक ऐश्वर्य तथा स्थूल सौंदर्य के प्रति बढ़ते आकर्षण ने साहित्य को देह के भूगोल तथा जांघों के जंगल में भटका दिया है। एकबार मानस पटल पर विकृति हावी हो गई, तो जीवन मूल्यों में सुधार नहीं हो सकता।
आज हमारा साहित्य दो खेमों में बंट गया है। प्रथम खेमा प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों का मंथन-चिंतन कर जीने के लिए शाश्वत साहित्य देने का प्रयास कर रहा है। दूसरा खेमा बाह्य चिंतन के आधार पर अपने युग की बीमारी की जांच करता है। क्या कारण है, उसपर विचार करता है। वह मानवीय संकट तथा दुःख का प्रमुख कारण भीतरी नहीं, बाहरी बताता है। प्रथम खेमा साहित्यकार को सृष्टा के रुप में देखता है तथा दूसरा खेमा द्रष्टा के रुप में। यहीं से प्रारंभ होता है साहित्यिक द्वंद्व। यह ठीक है कि साहित्य में यथार्थवादी चित्रण होना चाहिए, किन्तु सामाजिक जीवन में कुंठा की विरूपता को चित्रित करना ही साहित्य का एकमात्र दायित्व मान लेने से साहित्य का मूल धर्म ही तिरोहित हो जाता है।
अगर साहित्य कुंठा विद्रूपता के चित्रण के घेरे में आ जाता है, तो वह सामाजिक दायित्वों का ठीक से निर्वहन नहीं कर सकता। पाठक को सामाजिक दायित्व क्या होता है, इसकी समझ है। आज समाज में व्याप्त विसंगतियां, भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता और इन सबके साथ पीड़ा, घुटन, क्षोभ, आक्रोश, चीख, पुकार, तनी हुई मुट्ठियां, झुकी हुई गरदनें, सेक्स और पेट की भूख को चित्रित करना ही साहित्यकार का दायित्व नहीं रह गया। इससे चाहे बाह्य क्रांति संभव हो सकती है, किन्तु साहित्य का मूल दायित्व है - मानव मन के अंतःकरण में शुद्धता का अवतरण करना। अतः आज आवश्यकता है एक ऐसी साहित्यिक चेतना की, जो चिंतन की धुंध को छांट सके तथा समाज को एक नई दिशा दे सके। आज साहित्यकार को साहसपूर्ण आगे आकर सभी समस्याओं पर अंकुश लगाना है व कल्याणकारी मानवीय भावना व मदद की भावना जागृत करना है। कोरोना संक्रमण काल में थोड़ा अच्छा बदलाव आया है, मदद की भावना जागी है। वहीं कोई लालच में आकर लूट-खसोट करता भी दिखा। साहित्यकार अपने विलक्षण शब्दों की काया से उनके आचरण उजागर कर रहे हैं। मीडिया व पत्रकार बस राजा-महाराज के गुणगाण करने में ही अपनी शान समझते हैं। ...इसलिए साहित्यकारों का चाबुक चलना आवश्यक है।

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