प्रमोद भार्गव
यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि इन हृदयविदारक घटनाओं का लंबे समय से सिलसिला हकीकत बना हुआ है। शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले अमेरिका के रॉब एलीमेंट्री प्राथमिक विद्यालय में 18 साल के छात्र साल्वाडोर रैमोस ने अंधाधुंध गोलीबारी करके 19 छात्रों समेत 21 लोगों की हत्या कर दी। उसने अपनी दादी की भी बलि ले ली। इस घटना के बाद अमेरिका ने चार दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा तो की पर वह हथियार बेचने वाली बंदूक लॉबी पर अंकुश लगाए जाने के कोई ठोस उपाय नहीं कर पा रहा है। राष्ट्रपति ने कड़े उपायों की घोषणा तो की है, पर वह इसमें कामयाब होंगे, ऐसा संभव नहीं दिख रहा। अमेरिका में कोरोना कालखंड के दौरान भी ऐसी घटना हुई। दसवीं कक्षा के एक 14 वर्षीय छात्र ने तीन छात्रों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। अचरज में डालने वाली बात है कि कोरोना के भयावह संकटकाल में भी अमेरिका में बंदूकों की मांग सात गुना बढ़ गई थी। महिलाओं में भी बंदूकें खरीदने की दिलचस्पी बढ़ी। 2021 में ही फायरिंग की 650 घटनाएं घट चुकी हैं। इस साल दस छात्रों की मौत हो गई।
अमेरिका गन कल्चर से उबर नहीं पा रहा है। यह संस्कृति अमेरिका के लिए आत्मघाती साबित हो रही है। अमेरिका में रोजाना 53 लोगों की हत्या होती है। अमेरिका में होने वाली हत्याओं में से 79 फीसद लोग बंदूक से मारे जाते हैं। अमेरिका की कुल आबादी लगभग 33 करोड़ है, जबकि यहां व्यक्तिगत हथियारों की संख्या 39 करोड़ हैं। अमेरिका में हर सौ नागरिकों पर 120.5 हथियार हैं। अमेरिका में बंदूक रखने का कानूनी अधिकार संविधान में दिया हुआ है। ‘द गन कंट्रोल एक्ट‘ 1968 के मुताबिक, रायफल या कोई भी छोटा हथियार खरीदने के लिए व्यक्ति की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। 21 साल या उससे अधिक उम्र है तो व्यक्ति हैंडगन या बड़े हथियार भी खरीद सकते हैं। इसके लिए वहां भारत की तरह किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। इसी का परिणाम है कि जब कोरोना से अमेरिका जूझ रहा था, तब 2019 से लेकर अप्रैल 2021 के बीच 70 लाख से ज्यादा नागरिकों ने बंदूकें खरीदी हैं। ऐसी घटनाओं को सामाजिक विसंगतियों का भी नतीजा माना जाता है। अमेरिकी समाज में नस्लभेद तो पहले से ही मौजूद है, अब बढ़ती धन-संपदा ने ऊंच-नीच और अमीरी-गरीबी की खाई को भी खतरनाक ढंग से चौड़ा कर दिया है। टेक्सास के प्राथमिक विद्यालय का हमलावर यह छात्र भी अत्यंत गरीब परिवार से था। इसके सहपाठियों ने बताया है कि उसके सस्ते कपड़ों के कारण अन्य छात्र उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे। गरीबी को इंगित करने वाला यह मजाक 21 लोगों की जान पर भारी पड़ गया।
दरअसल अमेरिका ही नहीं, दुनिया के उच्च शिक्षित और सभ्य समाजों में परिवार या कुटुंब की अवधारणा समाप्त होती चली जा रही है। परिवार निरंतर विखंडित हो रहे हैं। यहां पति और पत्नी दोनों को अपने विवाहेतर संबंधों की मर्यादा का कोई ख्याल नहीं है। नतीजतन तलाक की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में उपेक्षित और हीन भावना से ग्रस्त युवा आक्रोश, असहिष्णुता एवं हिंसक प्रवृत्ति की गिरफ्त में आकर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। इन मानसिक बीमारियों को बढ़ाने में बेरोजगारी भी बड़ा कारण बन रही है। अवसाद की स्थिति में जब युवकों को आसानी से बंदूक हाथ लग जाती है, तो वे अपने भीतरी आक्रोश को हिंसा की इबारत लिखकर तात्कालिक उपाय कर लेते हैं। किंतु उनका और उनके परिजनों का दीर्घकालिक जीवन कानूनी दुविधाओं के चलते लगभग नष्ट हो जाता है। गन कल्चर नाम से कुख्यात इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए अमेरिका में पचास साल से चर्चा तो हो रही है, लेकिन संविधान में बदलाव दूर की कौड़ी बना हुआ है।
विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चे घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहां बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी है। आज साहित्य, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की पढ़ाई पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है, जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बालमन में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विसंगतियों से परिचत कराते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि आमतौर पर बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में बंद मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आंगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमन में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रुपये नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदात के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए, तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनधिकृत प्रवेश हो चुका है।
लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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